श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 33: कपिल के कार्यकलाप  »  श्लोक 26
 
 
श्लोक  3.33.26 
ब्रह्मण्यवस्थितमतिर्भगवत्यात्मसंश्रये ।
निवृत्तजीवापत्तित्वात्क्षीणक्लेशाप्तनिर्वृति: ॥ २६ ॥
 
शब्दार्थ
ब्रह्मणि—ब्रह्म में; अवस्थित—स्थित; मति:—मन; भगवति—भगवान् में; आत्म-संश्रये—सभी जीवों में वास करने वाला; निवृत्त—मुक्त; जीव—जीवात्मा का; आपत्तित्वात्—दुर्भाग्य से; क्षीण—लुप्त; क्लेश—कष्ट; आप्त—प्राप्त; निर्वृति:—दिव्य आनन्द ।.
 
अनुवाद
 
 उनका मन भगवान् में पूर्णत: निमग्न हो गया और उन्हें स्वत: निराकार ब्रह्म का बोध हो गया। ब्रह्म-सिद्ध आत्मा के रूप में वे भौतिक जीवन-बोध की उपाधियों से मुक्त हो गईं। इस प्रकार उनके सारे क्लेश मिट गये और उन्हें दिव्य आनन्द प्राप्त हुआ।
 
तात्पर्य
 पिछले श्लोक में बताया गया है कि देवहूति पहले से परम सत्य से अवगत थीं। अत: यह प्रश्न किया जा सकता है कि फिर वे ध्यान क्यों कर रही थीं? बात यह है कि जब कोई सिद्धान्त रूप में परम सत्य की व्याख्या करता है, तो उसे परम सत्य की निराकार प्रतीति होने लगती है। इसी प्रकार जब कोई उनके स्वरूप, गुण, लीला तथा उनके पार्षदों के विषय में गम्भीरतापूर्वक विवेचन करता है, तो वह उनके ध्यान में स्थित होता है। परमेश्वर का ज्ञान पूर्ण हो जाने पर स्वत: निराकार ब्रह्म का ज्ञान प्राप्त हो जाता है। ज्ञाता परमेश्वर को तीन दृष्टियों से अनुभव करता है—निराकार ब्रह्म, अन्तर्यामी परमात्मा तथा पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्। अत: यदि कोई परमेश्वर के ज्ञान में स्थित है, तो इसका यह अर्थ हुआ कि उसे परमात्मा तथा निराकार ब्रह्म की प्रतीति है।

भगवद्गीता का वचन है—ब्रह्मभूत: प्रसन्नात्मा। इसका अर्थ यह हुआ कि जब तक मनुष्य भवबन्धन से मुक्त नहीं होता और ब्रह्म में स्थित नहीं हो जाता, तब तक भक्ति को समझने या कृष्णभावनामृत में प्रवृत्त होने का प्रश्न ही नहीं उठता। जो कोई कृष्ण की भक्ति में लग जाता है उसे पहले ही ब्रह्म की प्रतीति हो चुकी होती है, क्योंकि भगवान् के दिव्य ज्ञान में ब्रह्मज्ञान सम्मिलित है। भगवद्गीता द्वारा इसकी पुष्टि होती है—ब्रह्मणो हि प्रतिष्ठाहम्—श्रीभगवान् की प्रतीति ब्रह्म पर निर्भर नहीं होती है। विष्णु पुराण भी पुष्टि करता है कि जिसने सर्वमंगल परमेश्वर की शरण ग्रहण कर ली है, वह पहले से ब्रह्मज्ञान में स्थित रहता है। दूसरे शब्दों में, जो वैष्णव होता है, वह पहले से ब्राह्मण होता है।

इस श्लोक की दूसरी विशेष बात यह है कि मनुष्य को निर्दिष्ट विधि-विधानों का पालन करना होता है। जैसाकि भगवद्गीता में पुष्टि की गई है—युक्ताहार विहारस्य। जब कोई कृष्णभावनामृत भक्ति में प्रवृत्त होता है तब भी उसे खाना, सोना, रक्षा करना तथा मैथुन करना होता है, क्योंकि ये जीवन की आवश्यकताएँ हैं। किन्तु वह इन कार्यों को नियामक ढंग से करता है। उसे कृष्ण-प्रसाद खाना होता है। उसे नियमबद्ध विधि से सोना होता है। सिद्धान्त यह है कि नींद की अवधि कम की जाय तथा भोजन कम किया जाय और उतना ही ग्रहण किया जाय जितने से शरीर ठीक-ठाक रहे। संक्षेप में कहना चाहें तो यह कि जीवन का उद्देश्य इन्द्रियतृप्ति न होकर आध्यात्मिक उन्नति होता है। इसी प्रकार संभोग में कमी की जानी चाहिए। संभोग का उद्देश्य केवल कृष्णभक्त सन्तान उत्पन्न करना है, अन्यथा संभोग की कोई आवश्यकता नहीं है। किसी वस्तु की मनाही नहीं है, किन्तु प्रत्येक वस्तु मन में सदुद्देश्य रखकर युक्त अर्थात् नियमित बनाई जाती है। जीवन के इन विधि-विधानों का पालन करते हुए मनुष्य शुद्ध हो जाता है और अविद्याजनित सारी भ्रान्तियाँ दूर हो जाती हैं। यहाँ इसका विशिष्ट उल्लेख है कि भवबन्धन के सारे कारण नष्ट हो जाते हैं।

अनर्थ-निवृत्ति सूचित करता है कि यह शरीर अवांछित है। हम तो आत्मा हैं और इस भौतिक शरीर की हमें कोई आवश्यकता नहीं थी। किन्तु हमने शरीर का भोग करना चाहा, अत: हमें भगवान् के निर्देशन में माया के माध्यम से यह शरीर मिला। ज्योंही हम भगवान् के साथ अपने दास्यभाव का पूर्वसम्बन्ध स्थापित कर लेंगे, हम शरीर की आवश्यकताएँ भूलने लगेंगे और अन्त में हम शरीर को भूल जाएँगे।

कभी-कभी स्वप्न में हमें ऐसा शरीर प्राप्त होता है, जिसके द्वारा हम स्वप्न में कार्य करते हैं। मुझे स्वप्न आ सकता है कि मैं आकाश में उड़ रहा हूँ, या किसी जंगल या अज्ञात स्थान में गया हुआ हूँ। किन्तु ज्योंही मैं जगता हूँ तो ये शरीर भूल जाते हैं। इसी प्रकार जब कोई कृष्णभावना में होता है, तो उसे शरीर के सारे विकार भूल जाते हैं। हम माता के गर्भ से जन्म लेने के बाद निरन्तर शरीर बदलते रहते हैं। किन्तु जब हममें कृष्णचेतना (भक्ति) जागृत होती है, तो हम इन सारे शरीरों को भूल जाते हैं। तब शारीरिक आवश्यकताएँ गौण हो जाती हैं, क्योंकि आत्मा का कार्य वास्तविक आध्यात्मिक जीवन में लगना है। पूर्ण कृष्णभावना में भक्ति कार्यों से हम समाधि में स्थित होते हैं। भगवत्यात्मसंश्रये शब्द परमात्मा रूप भगवान् के द्योतक हैं। भगवद्गीता में श्रीकृष्ण कहते हैं—बीजं मां सर्वभूतानाम्—मैं समस्त जीवों का बीज रूप हूँ। भक्तियोग द्वारा परमेश्वर की शरण ग्रहण करने से मनुष्य को ब्रह्म की पूरी प्रतीति हो जाती है। कपिल कहते हैं—मद्गुणश्रुतिमात्रेण—जो कृष्णभावनाभावित है और भगवान् में स्थित है, वह भगवान् के दिव्य गुणों के श्रवण मात्र से ईश्वर प्रेम से पूरित हो जाता है।

देवहूति को उनके पुत्र कपिलदेव ने पूरी तरह उपदेश दिया था कि किस तरह विष्णु के स्वरूप पर मन को केन्द्रिय किया जाय। भक्तियोग के सम्बन्ध में अपने पुत्र द्वारा दिए गये उपदेशों का अनुसरण करके उन्होंने अपने मन में भगवान के स्वरूप का ध्यान किया। ब्रह्म साक्षात्कार अर्थात् योग पद्धति अथवा भक्तियोग की यही पूर्णता है। अन्तत: जब मनुष्य परमेश्वर के विचार में पूरी तरह निमग्न हो जाता है और निरन्तर उनका ही ध्यान करता है, वही सर्वोच्च सिद्धि है। भगवद्गीता में पुष्टि हुई है कि इस प्रकार से जो सदैव ध्यानमग्न रहता है, वही उच्च कोटि का योगी है।

ज्ञानयोग, ध्यानयोग अथवा भक्तियोग—दिव्य साक्षात्कार की समस्त विधियों का वास्तविक उद्देश्य भक्ति के बिन्दु तक पहुँचना हैं। यदि कोई केवल परम सत्य या परमात्मा का ज्ञान प्राप्त करने का प्रयास करता है, किन्तु उसमें भक्ति नहीं होती तो सारा श्रम निरर्थक होता है। यह तो अन्न निकाले हुए भूसे को कूटने जैसा है। जब तक मनुष्य परमेश्वर को वास्तविक लक्ष्य नहीं मान लेता तब तक केवल चिन्तन या योगाभ्यास करना व्यर्थ है। ‘अष्टांग-योग’ पद्धति में सिद्धि की सातवीं अवस्था ध्यान है, जबकि भक्तियोग में वही ध्यान तीसरी अवस्था है। पहली अवस्था है श्रवण और दूसरी कीर्तन, तब ध्यान। अत: भक्ति करने से मनुष्य स्वयमेव पटु ज्ञानी तथा पटु योगी हो जाता है। दूसरे शब्दों में, ज्ञान तथा योग भक्ति की विभिन्न प्रारम्भिक अवस्थाएँ हैं।

देवहूति सार ग्रहण करने में पटु थीं, उन्होंने अपने हँसमुख पुत्र कपिलदेव द्वारा उपदिष्ट विधि से विष्णु स्वरूप का ध्यान किया। साथ ही वे कपिलदेव का भी चिन्तन कर रही थीं जो श्रीभगवान् हैं, अत: उन्होंने अपनी तपस्या तथा दिव्य साक्षात्कार को पूरा कर लिया।

 
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