श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 33: कपिल के कार्यकलाप  »  श्लोक 27
 
 
श्लोक  3.33.27 
नित्यारूढसमाधित्वात्परावृत्तगुणभ्रमा ।
न सस्मार तदात्मानं स्वप्ने द‍ृष्टमिवोत्थित: ॥ २७ ॥
 
शब्दार्थ
नित्य—शाश्वत; आरूढ—स्थित; समाधित्वात्—समाधि से; परावृत्त—मुक्त; गुण—प्रकृति के गुणों का; भ्रमा— भ्रम; न सस्मार—उसे स्मरण नहीं आया; तदा—तब; आत्मानम्—अपना शरीर; स्वप्ने—स्वप्न में; दृष्टम्—देखा हुआ; इव—जिस प्रकार; उत्थित:—जागा हुआ ।.
 
अनुवाद
 
 नित्य समाधि में स्थित होने तथा प्रकृति के गुणों से उत्पन्न भ्रम से मुक्त होने के कारण उन्हें अपना शरीर वैसे ही भूल गया जिस तरह मनुष्य को स्वप्न में अपने विविध शरीर भूल जाते हैं।
 
तात्पर्य
 एक महान् वैष्णव का कहना है कि जिसे अपने शरीर की सुधि नहीं रहती वह संसार से बँधा हुआ नहीं है। जब तक हमें अपने शरीर की सुधि रहती है तब तक यह समझना चाहिए कि हम प्रकृति के तीन गुणों से बद्ध हैं। यह विस्मृति तभी सम्भव है जब हम अपनी इन्द्रियों को भगवान् की दिव्य प्रेमा-भक्ति में लगा दें। बद्ध अवस्था में मनुष्य अपनी इन्द्रियाँ परिवार के सदस्य या समाज अथवा देश के सदस्य रूप में लगाता है। किन्तु जब वह ऐसी भौतिक सदस्यता को भूल करके यह अनुभव करता है कि वह भगवान् का नित्य दास है, तो वही संसार की वास्तविक विस्मृति है।

यह विस्मृति असल में भगवान् की सेवा करने पर ही उत्पन्न होती है। तब भक्त अपने परिवार, समाज, देश, मानवता इत्यादि के लिए इन्द्रियतृप्ति हेतु कोई कार्य नहीं करता। वह केवल पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् कृष्ण के लिए कार्य करता है। यही पूर्ण कृष्णचेतना (भक्ति) है।

भक्त दिव्य सुख में निमग्न रहता है, अत: वह भौतिक क्लेशों का कोई अनुभव नहीं करता। यह दिव्य सुख नित्य आनन्द कहलाता है। भक्तों के अनुसार, भगवान् का निरन्तर स्मरण ही समाधि है। यदि कोई निरन्तर समाधि में रहता है, तो उस पर प्रकृति के गुणों का आक्रमण नहीं होता, यहाँ तक कि वे इसे छू तक नहीं पाते। ज्योंही कोई तीनों गुणों के कल्मष से मुक्त हो जाता है उसे एक शरीर से दूसरे में अन्तरण करने के लिए जन्म नहीं लेना पड़ता।

 
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