श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 33: कपिल के कार्यकलाप  »  श्लोक 28
 
 
श्लोक  3.33.28 
तद्देह: परत: पोषोऽप्यकृशश्चाध्यसम्भवात् ।
बभौ मलैरवच्छन्न: सधूम इव पावक: ॥ २८ ॥
 
शब्दार्थ
तत्-देह:—उनका शरीर; परत:—अन्यों से (कर्दम द्वारा उत्पन्न युवतियों से); पोष:—पाला गया; अपि—यद्यपि; अकृश:—दुबला नहीं; च—तथा; आधि—चिन्ता; असम्भवात्—उत्पन्न न होने से; बभौ—चमका; मलै:—धूल से; अवच्छन्न:—ढका हुआ; स-धूम:—धुएँ से घिरा; इव—सदृश; पावक:—अग्नि ।.
 
अनुवाद
 
 उसके शरीर की देखभाल उसके पति कर्दम द्वारा उत्पन्न अप्सराओं द्वारा की जा रही थी और चूँकि उस समय उसे किसी प्रकार की मानसकि चिन्ता न थी, अत: उसका शरीर दुर्बल नहीं हुआ। वह धुएँ से घिरी हुई अग्नि के समान प्रतीत हो रही थी।
 
तात्पर्य
 चूँकि वह समाधि में दिव्य आनन्द का अनुभव करती थी, अत: भगवान् का विचार सदैव उसके मन में स्थिर था। वह दुबली नहीं हुईं, क्योंकि उसकी देखभाल स्वर्ग की उन सुन्दरियों द्वारा की जा रही थी जिन्हें कर्दम मुनि ने उत्पन्न किया था। आयुर्वेद के अनुसार यदि कोई चिन्तामुक्त रहे तो वह मोटा हो जाता है। देवहूति कृष्णभक्ति में स्थित होने के कारण सारी चिन्ताओं से मुक्त थीं, अत: उनका शरीर दुबला नहीं हुआ। संन्यास आश्रम में किसी दास या दासी से सेवा कराने का विधान नहीं है, किन्तु देवहूति की सेवा स्वर्ग-सुन्दरियाँ कर रही थीं। यह आध्यात्मिक जीवन विचारधारा के प्रतिकूल लग सकता है, किन्तु जिस प्रकार धुएँ से घिरी होने पर भी अग्नि सुन्दर लगती है, उसी प्रकार देवहूति अत्यन्त शुद्ध दिख रही थीं, यद्यपि ऐसा लग रहा था कि वह विलासमय जीवन बिता रही है।
 
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हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥