हे विदुर, कपिल द्वारा बताये गये नियमों का पालन करते हुए देवहूति शीघ्र ही भव बन्धन से मुक्त हो गई और बिना कठिनाई के परमात्मास्वरूप भगवान् को प्राप्त हुईं।
तात्पर्य
इस प्रसंग में देवहूति की उपलब्धि को बताने वाले तीन शब्द प्रयुक्त हुए हैं— आत्मानम्, ब्रह्म-निर्वाणम् तथा भगवन्तम्—ये परम सत्य की खोज की क्रमिक विधि को बताते हैं, जिसे भगवन्तम् कहा गया है। भगवान् विविध वैकुण्ठलोकों में वास करते हैं। निर्वाण का अर्थ है संसार के क्लेशों का शमन। जब कोई वैकुण्ठ को जाता है, तो वह सारे क्लेशों से स्वत: मुक्त हो जाता है। यही ब्रह्म-निर्वाण है। वैदिक शास्त्रों के अनुसार निर्वाण का अर्थ है भौतिक जीवन का अन्त। आत्मानम् का अर्थ है हृदय के भीतर परमात्मा का साक्षात्कार। अन्तत: परमसिद्धि तो भगवान् का साक्षात्कार है। यह समझ लेना चाहिए कि देवहूति उस लोक में प्रविष्ट हुईं जिसे कपिल ‘वैकुण्ठ’ कहते हैं। वैकुण्ठलोकों की संख्या अनन्त है जिनमें विष्णु के अंशों का प्राधान्य रहता है। जैसाकि ब्रह्म-संहिता से ज्ञात होता है—अद्वैतम् अच्युतम् अनादिम् अनन्तरूपम्। अनन्त का अर्थ है ‘असंख्य’। भगवान् के दिव्य स्वरूप के असंख्य विस्तार (अंश) होते हैं और अपनी चार भुजाओं में विभिन्न चिह्नों को धारण करने के कारण वे नारायण, प्रद्युम्न, अनिरुद्ध, वासुदेव आदि कहलाते हैं। ‘कपिल वैकुण्ठ’ नाम से भी एक वैकुण्ठ है जहाँ देवहूति कपिल से मिलने और अपने दिव्य पुत्र की संगति का आनन्द लेने के लिए भेज दी गईं।
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