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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 33: कपिल के कार्यकलाप  »  श्लोक 37
 
 
श्लोक  3.33.37 
य इदमनुश‍ृणोति योऽभिधत्ते
कपिलमुनेर्मतमात्मयोगगुह्यम् ।
भगवति कृतधी: सुपर्णकेताव्
उपलभते भगवत्पदारविन्दम् ॥ ३७ ॥
 
शब्दार्थ
य:—जो भी; इदम्—इसे; अनुशृणोति—सुनता है; य:—जो भी; अभिधत्ते—व्याख्या करता है; कपिल-मुने:— कपिल मुनि का; मतम्—उपदेश; आत्म-योग—भगवान् के ध्यान पर आधारित; गुह्यम्—गुप्त, गूढ़; भगवति— भगवान् पर; कृत-धी:—स्थिर मन से; सुपर्ण-केतौ—गरुड़ की ध्वजा वाले; उपलभते—प्राप्त करता है; भगवत्— भगवान् के; पद-अरविन्दम्—चरणकमल ।.
 
अनुवाद
 
 कपिलदेव तथा उनकी माता के व्यवहारों का विवरण अत्यन्त गोपनीय है और जो भी इस वृत्तान्त को सुनता या पढ़ता है, वह गरुड़ध्वज भगवान् का भक्त बन जाता है और बाद में उनकी दिव्य प्रेमा-भक्ति में प्रवृत्त होने के लिए भगवद्धाम में प्रवेश करता है।
 
तात्पर्य
 कपिल तथा उनकी माता देवहूति का यह वृत्तान्त इतना पूर्ण तथा दिव्य है कि यदि कोई इसे केवल सुनता या पढ़ता है, तो उसे जीवन की सर्वोच्च सिद्धि प्राप्त होती है, क्योंकि वह भगवान् के चरणकमल की सेवा में लग जाता है। इसमें सन्देह नहीं कि देवहूति ने मानव जीवन की सर्वोच्च सिद्धि प्राप्त की जिन्होंने भगवान् को पुत्र रूप में प्राप्त करके कपिल के उपदेशों का सुचारु रूप से पालन किया।
 
इस प्रकार श्रीमद्भागवत के ततृीय स्कन्ध के अन्तर्गत “कपिल के कार्यकलाप” नामक तैंतीसवें अध्याय के भक्तिवेदान्त तात्पर्य पूर्ण हुए।
 
 
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