हे भगवान्, आपने पतितों के पापपूर्ण कर्मों को घटाने तथा उनके भक्ति एवं मुक्ति के ज्ञान को बढ़ाने के लिए यह शरीर धारण किया है। चूँकि ये पापात्माएँ आपके निर्देश पर आश्रित हैं, अत: आप स्वेच्छा से सूकर तथा अन्य रूपों में अवतरित होते हैं। इसी प्रकार आप अपने आश्रितों को दिव्य ज्ञान वितरित करने के लिए प्रकट हुए हैं।
तात्पर्य
पिछले श्लोकों में भगवान् के सामान्य दिव्य गुणों का वर्णन था। अब भगवान् के प्राकट्य के विशिष्ट प्रयोजन का वर्णन किया जा रहा है। वे अपनी विभिन्न शक्तियों के द्वारा उन जीवों को विविध प्रकार के शरीर प्रदान करते हैं, जो प्रकृति पर प्रभुता जताने की इच्छा के कारण बद्ध हैं, किन्तु कालक्रम से वे इतने पतित हो जाते हैं कि उन्हें मार्गदर्शन की आवश्यकता होती है। भगवद्गीता में कहा गया है कि जब-जब इस संसार में वास्तविक उद्देश्य के सम्पन्न होने में त्रुटियाँ रह जाती हैं, तो भगवान् अवतार रूप में प्रकट होते हैं। कपिल के रूप में भगवान् का स्वरूप पतितों का निर्देशन करता है और उन्हें ज्ञान तथा भक्ति से समृद्ध करता है, जिससे वे भगवान् के धाम जा सकें। भगवान् के अवतार अनेक हैं—यथा वराह, मत्स्य, कच्छप तथा नृसिंह। कपिलदेव भी भगवान् के एक अवतार हैं। यहाँ यह स्वीकार किया गया है कि इस पृथ्वी पर भगवान् कपिलदेव का प्राकट्य पथभ्रष्ट बद्धजीवों को दिव्य ज्ञान प्रदान करने के लिए हुआ।
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