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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 33: कपिल के कार्यकलाप  »  श्लोक 6
 
 
श्लोक  3.33.6 
यन्नामधेयश्रवणानुकीर्तनाद्
यत्प्रह्वणाद्यत्स्मरणादपि क्‍वचित् ।
श्वादोऽपि सद्य: सवनाय कल्पते
कुत: पुनस्ते भगवन्नु दर्शनात् ॥ ६ ॥
 
शब्दार्थ
यत्—जिसका (भगवान् का); नामधेय—नाम; श्रवण—सुनना; अनुकीर्तनात्—कीर्तन से; यत्—जिसको; प्रह्वणात्—नमस्कार द्वारा; यत्—जिसको; स्मरणात्—स्मरण द्वारा; अपि—भी; क्वचित्—किसी समय; श्व-अद:— कुत्ता खाने वाला; अपि—भी; सद्य:—तुरन्त; सवनाय—वैदिक यज्ञ करने के लिए; कल्पते—पात्र बन जाता है; कुत:—क्या कहा जाय; पुन:—फिर; ते—तुम्हारे; भगवन्—भगवान्; नु—तब; दर्शनात्—साक्षात् दर्शन से ।.
 
अनुवाद
 
 उन व्यक्तियों की आध्यात्मिक उन्नति के विषय में क्या कहा जाय जो परम पुरुष का प्रत्यक्ष दर्शन करते हैं, यदि कुत्ता खाने वाले परिवार में उत्पन्न व्यक्ति भी भगवान् के पवित्र नाम का एक बार भी उच्चारण करता है अथवा उनका कीर्तन करता है, उनकी लीलाओं का श्रवण करता है, उन्हें नमस्कार करता है, या कि उनका स्मरण करता है, तो वह तुरन्त वैदिक यज्ञ करने के लिए योग्य बन जाता है।
 
तात्पर्य
 यहाँ पर परमेश्वर के पवित्र नाम के कीर्तन, श्रवण अथवा स्मरण की आध्यात्मिक शक्ति पर बल दिया गया है। रूप गोस्वामी ने बद्धजीव के पापपूर्ण कर्मों की सूची दी है और भक्ति-रसामृतसिन्धु में प्रमाणित किया है कि जो लोग भक्ति योग में संलग्न रहते हैं, वे समस्त पापकर्मों के फलों से मुक्त हो जाते हैं। भगवद्गीता द्वारा भी इसकी पुष्टि होती है। भगवान् कहते हैं कि जो लोग मेरी शरण में आते हैं उनका दायित्व मैं अपने ऊपर लेता हूँ और उन्हें समस्त पापकर्मों के फलों के प्रति निश्चेष्ट बना देता हूँ। यदि केवल नाम के कीर्तन मात्र से पापकर्मों के फल इतनी जल्दी धुल जाँय तो फिर उन पुरुषों का क्या कहना जो उन्हें प्रत्यक्ष देखते हैं? एक अन्य विचार जो यहाँ पर रखा गया है, वह यह है कि जो पुरुष कीर्तन तथा श्रवण द्वारा शुद्ध हो जाते हैं, वे तुरन्त वैदिक यज्ञ करने के पात्र बन जाते हैं। सामान्यतया, केवल वही व्यक्ति वैदिक यज्ञ कर सकता है, जो ब्राह्मण कुल में उत्पन्न हो, दस प्रकार के संस्कारों से शुद्ध हो चुका हो और जो वैदिक साहित्य में विद्वान हो चुका हो। किन्तु यहाँ सद्य: अर्थात् तुरन्त शब्द प्रयुक्त हुआ है और श्रीधर स्वामी की भी टिप्पणी है कि मनुष्य तुरन्त वैदिक यज्ञ करने का पात्र बन जाता है। निम्न जाति के परिवार में उत्पन्न मनुष्य जिसमें कुत्ता खाया जाता है, पूर्वजन्म से पापकर्मों के कारण इस स्थिति को प्राप्त होता है, किन्तु शुद्ध भाव से कीर्तन करने या सुनने से वह तुरन्त पापकर्मों से मुक्त हो जाता है। वह न केवल पापकर्मों से मुक्त हो जाता है, अपितु उसे तुरन्त समस्त विशुद्धीकरण की प्रक्रियाओं (संस्कारों) का फल प्राप्त हो जाता है। ब्राह्मण कुल में जन्म लेना निश्चय ही पूर्वजन्म में किये गये पुण्यों का फल होता है। तो भी ब्राह्मण कुल में उत्पन्न एक बालक यज्ञोपवीत संस्कार में दीक्षित होकर अपने को संस्कारित करता है। किन्तु यदि कोई भगवान् के पवित्रनाम का कीर्तन करता है, तो भले ही वह कुत्ता खाने वाले चण्डाल कुल में क्यों न जन्म ले, उसे किसी शुद्धीकरण की आवश्यकता नहीं पड़ती। वह केवल हरे कृष्ण का कीर्तन करके तुरन्त शुद्ध हो जाता है और विद्वान ब्राह्मण के समान ही उत्तम हो जाता है।

इस सम्बन्ध में श्रीधर स्वामी की टिप्पणी है—अनेन पूज्यत्वं लक्ष्यते। कुछ ब्राह्मण जाति वाले कहते हैं कि हरे कृष्ण कीर्तन से शुद्धिकरण प्रारम्भ होता है। निस्सन्देह यह व्यक्तिगत कीर्तन पर निर्भर करता है, किन्तु स्वामी श्रीधर की यह टिप्पणी पूर्णतया लागू होती है कि यदि बिना अपराध के कोई भगवान् के पवित्र नाम का कीर्तन करता है, तो वह तुरन्त ब्राह्मण से बढक़र बन जाता है। जैसाकि श्रीधर स्वामी का कहना है—पूज्यत्वम्—अर्थात् वह तुरन्त परम विद्वान ब्राह्मण के तुल्य आदरणीय बन जाता है और उसे वैदिक यज्ञ करने की अनुमति मिल सकती है। यदि केवल भगवन्नाम कीर्तन से कोई तुरन्त पवित्र हो जाता है, तो फिर उन सबका क्या कहना जो भगवान् का प्रत्यक्ष दर्शन करते हैं और भगवान् के अवतरण को समझते हैं जिस प्रकार देवहूति कपिलदेव को समझती हैं।

सामान्यतया, दीक्षा शिष्य को निर्देशित करने वाले गुरु पर निर्भर करती है। यदि वह समझता है कि शिष्य दक्ष है और कीर्तन द्वारा शुद्ध हो गया है, तो वह उसका यज्ञोपवीत संस्कार कर देता है, जिससे वह शत-प्रति-शत ब्राह्मण के तुल्य हो जाय। इसकी पुष्टि श्रील सनातन गोस्वामीकृत हरिभक्तिविलास में इस प्रकार हुई है, “जिस प्रकार रासायानिक विधि द्वारा घंटे की धातु (काँसा) सोने में बदली जा सकती है उसी प्रकार कोई भी व्यक्ति दीक्षा विधान द्वारा ब्राह्मण में बदला जा सकता है।”

कभी-कभी कहा जाता है कि कीर्तन द्वारा मनुष्य अपने को शुद्ध करता है और अगले जन्म में किसी ब्राह्मण परिवार में जन्म लेकर सुधर जाता है अथवा संस्कारित हो जाता है। किन्तु वर्तमान में जो लोग श्रेष्ठ ब्राह्मण परिवारों में जन्म लेते हैं, वे संस्कार सम्पन्न नहीं हैं, न यही निश्चित है कि वे ब्राह्मण पिता से उत्पन्न हैं। पहले गर्भाधान संस्कार प्रचलित था, किन्तु अब ऐसा गर्भाधान या वीर्यदान संस्कार नहीं है। ऐसी दशा में कोई ठीक से यह नहीं जानता कि मनुष्य ब्राह्मण पिता से उत्पन्न है या नहीं। यह तो गुरु के निर्णय पर निर्भर करता है कि किसी ने ब्राह्मण के गुण प्राप्त कर लिये हैं या नहीं। वह अपने निर्णय द्वारा ही शिष्य को ब्राह्मण रूप में स्वीकार करता है। जब कोई पञ्चरात्रिक विधि से यज्ञोपवीत संस्कार में ब्राह्मण रूप में स्वीकार कर लिया जाता है, तो वह द्विज कहलाता है। इसकी पुष्टि सनातन गोस्वामी द्वारा द्विजत्वं जायते कह कर की गई है। गुरु द्वारा दीक्षित किये जाने पर मनुष्य ब्राह्मण बनता है और इस शुद्ध अवस्था में वह भगवान् के पवित्र नाम का जप करता है। फिर प्रगति करता हुआ वह योग्य वैष्णव बन जाता है, जिसका अर्थ है कि उसने पहले से ब्राह्मण योग्यता प्राप्त कर ली है।

 
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