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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 33: कपिल के कार्यकलाप  »  श्लोक 7
 
 
श्लोक  3.33.7 
अहो बत श्वपचोऽतो गरीयान्
यज्जिह्वाग्रे वर्तते नाम तुभ्यम् ।
तेपुस्तपस्ते जुहुवु: सस्‍नुरार्या
ब्रह्मानूचुर्नाम गृणन्ति ये ते ॥ ७ ॥
 
शब्दार्थ
अहो बत—ओह, धन्य है; श्व-पच:—कुत्ता खाने वाला; अत:—अतएव; गरीयान्—पूज्य; यत्—जिसकी; जिह्वा- अग्रे—जीभ के अगले भाग पर; वर्तते—है; नाम—पवित्र नाम; तुभ्यम्—तुमको; तेपु: तप:—अभ्यासकृत तपस्या; ते—वे; जुहुवु:—अग्नि यज्ञ (हवन) सम्पन्न किये; सस्नु:—पवित्र नदियों में स्नान किया; आर्या:—आर्यजन; ब्रह्म अनूचु:—वेदों का अध्ययन किया; नाम—पवित्र नाम; गृणन्ति—स्वीकार करते हैं; ये—जो; ते—तुम्हारी ।.
 
अनुवाद
 
 ओह! वे कितने धन्य हैं जिनकी जिह्वाएँ आपके पवित्र नाम का जप करती हैं! कुत्ता खाने वाले वंशों में उत्पन्न होते हुए भी ऐसे पुरुष पूजनीय हैं। जो पुरुष आपके पवित्र नाम का जप करते हैं उन्होंने सभी प्रकार की तपस्याएँ तथा हवन किये होंगे और आर्यों के सदाचार प्राप्त किये होंगे। आपके पवित्र नाम का जप करते रहने के लिए उन्होंने तीर्थस्थानों में स्नान किया होगा, वेदों का अध्ययन किया होगा और अपेक्षित हर वस्तु की पूर्ति की होगी।
 
तात्पर्य
 जैसाकि पिछले श्लोक में आया है कि यदि कोई निरपराध भाव से एक बार भी भगवान् के पवित्र नाम का जप करता है, तो वह वैदिक यज्ञ करने का पात्र बन जाता है। श्रीमद्भागवत के इस कथन से किसी को चकित नहीं होना चाहिए। मनुष्य को न तो अविश्वास करना चाहिए, न यह सोचना चाहिए कि भगवान् का नाम जप करने मात्र से कोई ब्राह्मण के तुल्य कैसे बन सकता है? अविश्वास करने वालों के मन से संदेह दूर करने के लिए ही यह श्लोक पुष्टि करता है कि भगवान् के पवित्र नाम के कीर्तन की स्थिति सहसा प्राप्त नहीं हो जाती, अपितु जप करने वाला पहले सभी प्रकार के यज्ञ तथा अनुष्ठान कर चुका होता है। यह कोई आश्चर्य की बात नहीं, क्योंकि कोई भी व्यक्ति तब तक भगवान् के नाम का जप नहीं कर पाता जब तक वह नीचे की सारी अवस्थाएँ—यथा वैदिक अनुष्ठान करना, वेदों का अध्ययन तथा आर्यों जैसा सदाचार करना—पार नहीं कर लेता। पहले यह सब सम्पन्न कर लेना होगा। जिस प्रकार विधि के विद्यार्थी से यह आशा की जाती है, वह सामान्य शिक्षा में स्नातक होगा उसी तरह जो भी भगवान् के नाम-जप हरे कृष्ण महामन्त्र के जप में लगा हुआ है उसने नीचे की सारी अवस्थाएँ पार कर ली होंगी। यह कहा गया है कि जो अपनी जीभ के अग्रभाग से केवल नाम जप करते हैं, वे धन्य हैं। मनुष्य को पवित्र नाम का जप भी नहीं करना होता और न पूरी विधि समझने की आवश्यकता रहती है, जिसमें अपराधी अवस्था, निरपराधी अवस्था तथा शुद्ध अवस्था सम्मिलित हैं। यदि पवित्र नाम को जीभ के अगले भाग पर ला दिया जाए तो वही पर्याप्त है। यहाँ यह कहा गया है कि नाम—केवल एक नाम, चाहे राम हो या कृष्ण—पर्याप्त है। ऐसा नहीं है कि मनुष्य को भगवान् के सारे नामों का जप करना पड़े। भगवान् के नाम तो असंख्य हैं और मनुष्य को यह सिद्ध करने के लिए कि उसने समस्त वैदिक अनुष्ठानों को पूरा कर लिया है, सारे नामों के जप की आवश्यकता नहीं रहती। यदि वह एक बार भी जप करता है, तो समझिए कि उसने सारी परीक्षाएँ उत्तीर्ण कर ली हैं। जो लोग चौबीसों घंटे जप करते रहते हैं उनकी तो कोई बात ही नहीं। यहाँ विशेष रूप से तुभ्यम् अर्थात् “केवल तुझको” प्रयुक्त हुआ है। मनुष्य को ईश्वर का नाम लेना चाहिए, मायावादी चिन्तकों की तरह कोई भी नाम नहीं। किसी देवता या भगवान् की शक्तियों के नाम नहीं। केवल परमेश्वर का नाम प्रभावशाली होता है। जो मनुष्य परमेश्वर के नाम की तुलना देवताओं से करता है, वह पाखंडी है, अपराधी है।

पवित्र नाम का कीर्तन किसी इन्द्रियतृप्ति या व्यवसाय की दृष्टि से नहीं, अपितु परमेश्वर को प्रसन्न करने के लिए किया जाता है। यदि यह शुद्ध भाव हो तो भले ही कोई निम्न परिवार में, यथा चण्डाल के घर में, क्यों न जन्म ले, वह धन्य है, क्योंकि वह न केवल अपने को शुद्ध करता है, अपितु अन्यों का उद्धार करने में समर्थ होता है। वह दिव्य नाम की महत्ता के विषय में बोल सकता है जैसा ठाकुर हरिदास ने किया। वे एक मुसलमान परिवार में जन्मे थे, किन्तु निष्कपट भाव से उन्होंने परमेश्वर का नाम जप किया, अत: भगवान् चैतन्य ने उन्हें नाम प्रचार का आचार्य बना दिया। वे उस कुल में उत्पन्न थे जहाँ वैदिक विधि-विधानों का पालन नहीं होता था। चैतन्य महाप्रभु तथा अद्वैत प्रभु ने उन्हें आचार्य रूप में स्वीकार किया, क्योंकि वे निष्कपट भाव से भगवन्नाम का जप करते थे। चैतन्य महाप्रभु तथा अद्वैत प्रभु ने तुरन्त स्वीकार किया कि हरिदास ने पहले ही सारी तपस्याएँ कर ली हैं, वेदों का अध्ययन कर लिया है और सारे यज्ञ सम्पन्न कर लिए हैं। यह स्वत: ज्ञेय है। किन्तु वंश परम्परा वाले ब्राह्मण जिन्हें स्मार्त ब्राह्मण कहा जाता है, का मत है कि यदि भगवान्नाम जप करने वालों को शुद्ध मान लिया जाय तो भी उन्हें वैदिक अनुष्ठान कराने होते हैं या अगले जन्म में ब्राह्मण कुल में उत्पन्न होने तक प्रतीक्षा करनी होती है, जिससे वे वैदिक अनुष्ठान कर सकें। किन्तु वस्तुत: ऐसा है नहीं। ऐसे व्यक्ति को शुद्ध होने के लिए अगले जन्म तक प्रतीक्षा नहीं करनी होती। वह तुरन्त शुद्ध हो जाता है। ऐसा मान लिया जाता है कि उसने सभी प्रकार के अनुष्ठान पहले से कर रखे हैं। ऐसे अनेक वैदिक कार्य हैं जिनका उल्लेख यहाँ नहीं हुआ। पवित्र नाम का जप करने वाले उन्हें पहले ही सम्पन्न कर चुके होते हैं।

जुहुव: शब्द सूचित करता है कि भगवन्नाम का जप करने वाले पहले ही सारे यज्ञ कर चुकते हैं। सस्नु: का अर्थ है कि वे पहले ही सारे तीर्थस्थानों की यात्रा कर चुके हैं और उन स्थानों के शुद्धि-कर्मों में भाग ले चुके हैं। वे आर्या: कहलाते हैं, क्योंकि उन्होंने इन सारी आवश्यकताओं को पूरा कर लिया है, अत: उन्हें इन्हीं आर्यों में से होना चाहिए। आर्यन् उनको लक्षित करता है, जो सभ्य हैं और जिनके आचरण वैदिक अनुष्ठानों के अनुसार हैं। कोई भी भक्त जो भगवन्नाम का जप करता है, वह श्रेष्ठ आर्य है। कोई वेदों का अध्ययन किये बिना आर्य नहीं हो सकता, किन्तु भगवन्नाम जप करने वालों को स्वत: मान लिया जाता है कि उन्होंने सारा वैदिक साहित्य पहले ही पढ़ लिया है। यहाँ पर अनूचु: विशिष्ट शब्द के रूप में प्रयुक्त है, जिसका अर्थ है कि चूँकि उन्होंने समस्त संस्तुत कार्य कर लिए हैं, अत: वे गुरु होने के योग्य हैं।

इस श्लोक में प्रयुक्त गृणन्ति शब्द इसका सूचक है कि पहले से अनुष्ठानों के सम्पन्न करने से सिद्ध अवस्था प्राप्त हो चुकी है। यदि कोई उच्च न्यायालय की बेंच में आसीन होकर मुकद्दमों का फैसला करने लगता है, तो इसका अर्थ है कि उसने सारी विधि-परीक्षाएँ उत्तीर्ण कर ली हैं और उन लोगों से श्रेष्ठ है, जो विधि परीक्षाएँ देने वाले हैं या भविष्य में विधि का अध्ययन करने की आकांक्षा रखते हैं। इसी प्रकार जो व्यक्ति भगवन्नाम का जप करते हैं, वे उनसे बढक़र हैं, जो वास्तव में वैदिक अनुष्ठान करते हैं और जो योग्य बनने की आशा करते हैं (या दूसरे शब्दों में जो लोग ब्राह्मण कुलों में जन्म लेते हैं, किन्तु जिनके संस्कार नहीं हुए रहते फलत: वे भविष्य में वैदिक अनुष्ठानों का अध्ययन करने तथा यज्ञों को सम्पन्न करने की आशा बनाये हुए हैं)।

अनेक स्थलों पर ऐसे वैदिक कथन मिलते हैं जिनमें कहा गया है कि जो कोई भगवन्नाम का जप करता है, वह तुरन्त बद्ध जीवन से मुक्त हो जाता है और जो भगवन्नाम का श्रवण करता है, वह भी, भले ही चण्डाल के घर क्यों न उत्पन्न हो, भव-पाश से छूट जाता है।

 
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