तम्—उसको; त्वाम्—तुमको; अहम्—मैं; ब्रह्म—ब्रह्म; परम्—परम; पुमांसम्—परमेश्वर को; प्रत्यक्-स्रोतसि— अन्तर्मुखी; आत्मनि—मन में; संविभाव्यम्—ध्यान किया, अनुभूत; स्व-तेजसा—अपनी शक्ति से; ध्वस्त—विलीन; गुण-प्रवाहम्—प्रकृति के गुणों का प्रभाव; वन्दे—नमस्कार करती हूँ; विष्णुम्—विष्णु को; कपिलम्—कपिल नामक; वेद-गर्भम्—वेदों के आगार ।.
अनुवाद
हे भगवान्, मुझे विश्वास है कि आप कपिल नाम से स्वयं पुरुषोम भगवान् विष्णु अर्थात् परब्रह्म हैं। सारे ऋषि-मुनि इन्द्रियों तथा मन के उद्वेगों से मुक्त होकर आपका ही चिन्तन करते हैं, क्योंकि आपकी कृपा से ही मनुष्य भव-बन्धन से छूट सकता है। प्रलय के समय सारे वेद आपमें ही स्थान पाते हैं।
तात्पर्य
कपिल की माता देवहूति ने अपनी प्रार्थना को और अधिक न बढ़ाकर संक्षेप में कहा कि भगवान् कपिल विष्णु ही हैं अन्य कोई नहीं हैं और चूँकि वे स्वयं एक स्त्री हैं, अत: केवल स्तुति से उनकी पूजा कर पाना उनके लिए सम्भव नहीं है। उनकी अभिलाषा थी कि भगवान् प्रसन्न हों। यहाँ पर प्रत्यक् शब्द महत्त्वपूर्ण है। योगाभ्यास के आठ अंग इस प्रकार हैं—यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान तथा समाधि। ‘प्रत्याहार’ का अर्थ है इन्द्रियों के कार्यकलाप समाप्त करना। देवहूति द्वारा भगवान् के जिस साक्षात्कार की बात कही जा रही है, वह तभी सम्भव है जब मनुष्य अपनी इन्द्रियों को सारे कार्यों से मोड़ ले। जब मनुष्य भक्ति में संलग्न रहता है, तो उसकी इन्द्रियों के इधर-उधर व्यस्त होने का प्रश्न ही नहीं उठता। ऐसी पूर्ण कृष्णचेतना में मनुष्य भगवान् को उनके असली रूप में समझ सकता है।
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