श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 4: विदुर का मैत्रेय के पास जाना  »  श्लोक 1
 
 
श्लोक  3.4.1 
उद्धव उवाच
अथ ते तदनुज्ञाता भुक्त्वा पीत्वा च वारुणीम् ।
तया विभ्रंशितज्ञाना दुरुक्तैर्मर्म पस्पृश: ॥ १ ॥
 
शब्दार्थ
उद्धव: उवाच—उद्धव ने कहा; अथ—तत्पश्चात्; ते—वे (यादवगण); तत्—ब्राह्मणों द्वारा; अनुज्ञाता:—अनुमति दिये जाकर; भुक्त्वा—खाकर; पीत्वा—पीकर; च—तथा; वारुणीम्—मदिरा; तया—उससे; विभ्रंशित-ज्ञाना:—ज्ञानसे विहीन होकर; दुरुक्तै:—कर्कश शब्दों से; मर्म—हृदय के भीतर; पस्पृशु:—छू गया ।.
 
अनुवाद
 
 तत्पश्चात् उन सबों ने (वृष्णि तथा भोज वंशियों ने) ब्राह्मणों की अनुमति से प्रसाद का उच्छिष्ट खाया और चावल की बनी मदिरा भी पी। पीने से वे सभी संज्ञाशून्य हो गये और ज्ञान से रहित होकर एक दूसरे को वे मर्मभेदी कर्कश वचन कहने लगे।
 
तात्पर्य
 उत्सवों में जब ब्राह्मणों तथा वैष्णवों को भलीभाँति भोजन कराया जाता है, तो अतिथियों द्वारा अनुमति दिये जाने पर आतिथेय भोजन का उच्छिष्ट खाता है। अतएव वृष्णि तथा भोज वंशियों ने ब्राह्मणों से औपचारिक अनुमति ली और तब तैयार किया हुआ भोज्य पदार्थ खाया। क्षत्रियों को कतिपय अवसरों पर मदिरा पीने की छूट है, अतएव उन सबों ने चावल से बनी हल्की मदिरा का पान किया। ऐसे मदिरापान से वे इतने संज्ञाशून्य तथा मूर्छित हो उठे कि वे पारस्परिक सम्बन्धों को भूल गये और ऐसे कटु वचनों का प्रयोग करने लगे जो आपस में एक दूसरे के हृदय को आहत करने लगे थे। मदिरापान इतना हानिकारक है कि कोई अत्यन्त सुसंस्कृत परिवार भी नशे से प्रभावित हो जाता है और नशे की अवस्था में अपने आपको भूल सकता है। वृष्णि तथा भोज वंशियों से इस तरह अपने आपको भूल जाने की आशा नहीं की जाती थी। किन्तु परमेश्वर की इच्छा से ऐसा हुआ और वे एक दूसरे के प्रति कटु बन गये।
 
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हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥