मैत्रेय मुनि उनमें (भगवान् में) अत्यधिक अनुरक्त थे और वे अपना कंधा नीचे किये प्रसन्न मुद्रा में सुन रहे थे। मुझे विश्राम करने का समय देकर, भगवान् मुसकुराते हुए तथा विशेष चितवन से मुझसे इस प्रकार बोले।
तात्पर्य
यद्यपि उद्धव तथा मैत्रेय दोनों ही महात्मा थे, किन्तु भगवान् का ध्यान उद्धव पर अधिक था क्योंकि वे निष्कलंक शुद्ध भक्त थे। ज्ञान-भक्त अर्थात् वह जिसकी भक्ति एकत्ववाद के दृष्टिकोण से मिश्रित होती है, शुद्ध भक्त नहीं होता। यद्यपि मैत्रेय भक्त थे, किन्तु उनकी भक्ति मिश्रित थी। भगवान् दिव्य प्रेम के आधार पर अपने भक्तों से प्रतिदान करते हैं, ज्ञान या सकाम कर्मों के आधार पर नहीं। भगवान् की दिव्य प्रेमाभक्ति में एकत्ववाद ज्ञान अथवा सकाम कर्मों के लिए कोई स्थान नहीं होता। वृन्दावन की गोपियाँ न तो परम विद्वान् थीं, न योगी थीं। उनमें भगवान् के लिए रागानुग प्रेम था। अत: वे उनके प्राणाधार बन गए और गोपियाँ भी उनकी प्राणाधार हो गईं। श्री चैतन्य महाप्रभु ने भगवान् के साथ गोपियों के सम्बन्ध को सर्वोत्कृष्ट माना है। यहाँ पर उद्धव के प्रति भगवान् का दृष्टिकोण मैत्रेय मुनि की अपेक्षा अधिक घनिष्ठ था।
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