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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 4: विदुर का मैत्रेय के पास जाना  »  श्लोक 11
 
 
श्लोक  3.4.11 
श्री भगवानुवाच
वेदाहमन्तर्मनसीप्सितं ते
ददामि यत्तद् दुरवापमन्यै: ।
सत्रे पुरा विश्वसृजां वसूनां
मत्सिद्धिकामेन वसो त्वयेष्ट: ॥ ११ ॥
 
शब्दार्थ
श्री-भगवान् उवाच—भगवान् ने कहा; वेद—जानता हूँ; अहम्—मैं; अन्त:—भीतर; मनसि—मन में; ईप्सितम्—इच्छित; ते— तुम्हें; ददामि—देता हूँ; यत्—जो है; तत्—वह; दुरवापम्—प्राप्त कर पाना अतीव कठिन; अन्यै:—अन्यों द्वारा; सत्रे—यज्ञ में; पुरा—प्राचीन काल में; विश्व-सृजाम्—इस सृष्टि का सृजन करने वालों के; वसूनाम्—वसुओं का; मत्-सिद्धि-कामेन—मेरी संगति प्राप्त करने की इच्छा से; वसो—हे वसु; त्वया—तुम्हारे द्वारा; इष्ट:—जीवन का चरम लक्ष्य ।.
 
अनुवाद
 
 हे वसु, मैं तुम्हारे मन के भीतर से वह जानता हूँ, जिसे पाने की तुमने प्राचीन काल में इच्छा की थी जब विश्व के कार्यकलापों का विस्तार करने वाले वसुओं तथा देवताओं ने यज्ञ किये थे। तुमने विशेषरूप से मेरी संगति प्राप्त करने की इच्छा की थी। अन्य लोगों के लिए इसे प्राप्त कर पाना दुर्लभ है, किन्तु मैं तुम्हें यह प्रदान कर रहा हूँ।
 
तात्पर्य
 उद्धव भगवान् के नित्यसंगियों में से एक हैं और उद्धव का स्वांश प्राचीन काल में आठ वसुओं में से एक था। आठ वसु तथा स्वर्गलोक के देवताओं ने, जो विश्व के कर्मों की व्यवस्था के लिए उत्तरदायी हैं, प्राचीन काल में अपने-अपने जीवन के चरम लक्ष्यों की पूर्ति की इच्छा से एक यज्ञ किया। उस समय उद्धव के एक अंश ने, एक वसु के रूप में, भगवान् का संगी बनने की इच्छा प्रकट की थी। भगवान् इसे जानते थे, क्योंकि वे हर जीव के हृदय में परमात्मा या पराचेतना के रूप में उपस्थित रहते हैं। हर एक के हृदय में पराचेतना का प्रतिनिधित्व होता है, जो हर जीव की आंशिक चेतना को स्मृति प्रदान करता है। आंशिक चेतना के रूप में जीव अपने विगत जीवन की घटनाएँ भूल जाता है, किन्तु पराचेतना उसे स्मरण कराती है कि ज्ञान के विगत अनुशीलन के अनुसार किस तरह कर्म किया जाय। भगवद्गीता में इस तथ्य की पुष्टि अनेक प्रकार से हुई है—ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम् (भगवद्गीता ४.११) तथा सर्वस्य चाहं हृदि सन्निविष्टो मत्त: स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च। (भगवद्गीता १५.१५) हर जीव को अपनी पसंद के अनुसार इच्छा करने की छूट है, किन्तु इस इच्छा की पूर्ति भगवान् द्वारा की जाती है। हर व्यक्ति सोचने या इच्छा करने के लिए स्वतंत्र हैं, किन्तु उसकी पूर्ति परम इच्छा पर निर्भर करती है। इस नियम को “मोंरे मन कछु और है कर्ता के मन और” द्वारा व्यक्त किया जाता है। प्राचीन-काल में जब देवताओं तथा वसुओं ने यज्ञ किया, तो एक वसु के रूप में उद्धव ने भगवान् की संगति करने की इच्छा प्रकट की थी जो ज्ञानियों या सकाम कर्मियों के लिए अत्यन्त दुर्लभ है। ऐसे लोगों को भगवान् का संगी बनने के विषय में कोई व्यावहारिक बातें ज्ञात नहीं होतीं। केवल शुद्ध भक्त भगवत्कृपा से ही जान सकते हैं कि भगवान् की निजी संगति जीवन की सर्वोच्च सिद्धि है। भगवान् ने उद्धव को आश्वासन दिया कि वे उनकी इच्छा पूरी करेंगे। ऐसा प्रतीत होता है कि जब भगवान् ने संकेत द्वारा उद्धव को इसकी जानकारी दी तो महर्षि मैत्रेय भगवान् की संगति प्राप्त करने की महत्ता से अन्त में अवगत हो गए।
 
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