स एष साधो चरमो भवाना-
मासादितस्ते मदनुग्रहो यत् ।
यन्मां नृलोकान् रह उत्सृजन्तं
दिष्टया ददृश्वान् विशदानुवृत्त्या ॥ १२ ॥
शब्दार्थ
स:—वह; एष:—उनका; साधो—हे साधु; चरम:—चरम; भवानाम्—तुम्हारे सारे अवतारों (वसु रूप में) में से; आसादित:— अब प्राप्त; ते—तुम पर; मत्—मेरी; अनुग्रह:—कृपा; यत्—जिस रूप में; यत्—क्योंकि; माम्—मुझको; नृ-लोकान्— बद्धजीवों के लोक; रह:—एकान्त में; उत्सृजन्तम्—त्यागते हुए; दिष्ट्या—देखने से; ददृश्वान्—जो तुम देख चुके हो; विशद- अनुवृत्त्या—अविचल भक्ति से ।.
अनुवाद
हे साधु, तुम्हारा वर्तमान जीवन अन्तिम तथा सर्वोपरि है, क्योंकि तुम्हें इस जीवन में मेरी चरम कृपा प्राप्त हुई है। अब तुम बद्धजीवों के इस ब्रह्माण्ड को त्याग कर मेरे दिव्य धाम वैकुण्ठ जा सकते हो। तुम्हारी शुद्ध तथा अविचल भक्ति के कारण इस एकान्त स्थान में मेरे पास तुम्हारा आना तुम्हारे लिए महान् वरदान है।
तात्पर्य
मुक्तावस्था को प्राप्त एक परिपूर्ण जीवात्मा द्वारा जितना भगवत्ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है उससे जब वह पूर्णतया अवगत हो लेता है, तो उसे आध्यात्मिक आकाश में प्रवेश करने दिया जाता है जहाँ वैकुण्ठलोक विद्यमान हैं। भगवान् एकान्त में इस ब्रह्माण्ड के निवासियों की दृष्टि से अन्तर्धान होने के लिए बैठे हुए थे और ऐसे समय में भी उनका दर्शन करने और इस तरह वैकुण्ठ में प्रवेश करने के लिए उनकी अनुमति पाने के लिए उद्धव भाग्यशाली थे। भगवान् सदैव सर्वत्र रहते हैं और उनका प्राकट्य तथा अन्तर्धान होना किसी विशेष ब्रह्माण्ड के निवासियों का अनुभव मात्र है। वे सूर्यवत् हैं। सूर्य आकाश में प्रकट या अन्तर्धान नहीं होता। यह तो लोगों का अनुभव है कि सूर्य प्रात:काल उदय होता है और सांयकाल अस्त हो जाता है। भगवान् एक ही समय वैकुण्ठ में तथा वैकुण्ठ के भीतर तथा बाहर सर्वत्र रहते हैं।
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