श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 4: विदुर का मैत्रेय के पास जाना  »  श्लोक 13
 
 
श्लोक  3.4.13 
पुरा मया प्रोक्तमजाय नाभ्ये
पद्मे निषण्णाय ममादिसर्गे ।
ज्ञानं परं मन्महिमावभासं
यत्सूरयो भागवतं वदन्ति ॥ १३ ॥
 
शब्दार्थ
पुरा—प्राचीन काल में; मया—मेरे द्वारा; प्रोक्तम्—कहा गया था; अजाय—ब्रह्मा से; नाभ्ये—नाभि से बाहर; पद्मे—कमल पर; निषण्णाय—स्थित; मम—मेरा; आदि-सर्गे—सृष्टि के प्रारम्भ में; ज्ञानम्—ज्ञान; परम्—परम; मत्-महिमा—मेरी दिव्य कीर्ति; अवभासम्—जो निर्मल बनाती है; यत्—जिसे; सूरय:—महान् विद्वान् मुनि; भागवतम्—श्रीमद्भागवत; वदन्ति—कहते हैं ।.
 
अनुवाद
 
 हे उद्धव, प्राचीन काल में कमल कल्प में, सृष्टि के प्रारम्भ में मैंने अपनी नाभि से उगे हुए कमल पर स्थित ब्रह्मा से अपनी उस दिव्य महिमाओं के विषय में बतलाया था, जिसे बड़े-बड़े मुनि श्रीमद्भागवत कहते हैं।
 
तात्पर्य
 परमात्मा विषयक जो व्याख्या ब्रह्मा से कही गई तथा जो इस ग्रंन्थ के द्वितीय स्कन्ध में पहले ही बताई गई है, उसका और अधिक स्पष्टीकरण यहाँ पर हुआ है। भगवान् ने कहा कि ब्रह्मा को बतलाया गया श्रीमद्भागवत का संक्षिप्त रूप मेरे व्यष्टित्व स्वरूप की व्याख्या के लिए था। द्वितीय स्कन्ध के उन चार श्लोकों की निर्विशेष व्याख्या यहीं निरस्त हो जाती हैं। इस सन्दर्भ में श्रीधर स्वामी ने भी व्याख्या की है कि भागवत का वही संक्षिप्त रूप भगवान् कृष्ण की लीलाओं से सम्बन्धित था और वह निर्विशेष तोषण के लिए कदापि नहीं था।
 
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हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥