श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 4: विदुर का मैत्रेय के पास जाना  »  श्लोक 17
 
 
श्लोक  3.4.17 
मन्त्रेषु मां वा उपहूय यत्त्व-
मकुण्ठिताखण्डसदात्मबोध: ।
पृच्छे: प्रभो मुग्ध इवाप्रमत्त-
स्तन्नो मनो मोहयतीव देव ॥ १७ ॥
 
शब्दार्थ
मन्त्रेषु—मन्त्रणाओं या परामर्शों में; माम्—मुझको; वै—अथवा; उपहूय—बुलाकर; यत्—जितना; त्वम्—आप; अकुण्ठित— बिना हिचक के; अखण्ड—विना अलग हुए; सदा—सदैव; आत्म—आत्मा; बोध:—बुद्धिमान; पृच्छे:—पूछा; प्रभो—हे प्रभु; मुग्ध:—मोहग्रस्त; इव—मानो; अप्रमत्त:—यद्यपि कभी मोहित नहीं होता; तत्—वह; न:—हमारा; मन:—मन; मोहयति— मोहित करता है; इव—मानो; देव—हे प्रभु ।.
 
अनुवाद
 
 हे प्रभु, आपकी नित्य आत्मा कभी भी काल के प्रभाव से विभाजित नहीं होती और आपके पूर्णज्ञान की कोई सीमा नहीं है। इस तरह आप अपने आप से परामर्श लेने में पर्याप्त सक्षम थे, किन्तु फिर भी आपने परामर्श के लिए मुझे बुलाया मानो आप मोहग्रस्त हो गए हैं, यद्यपि आप कभी भी मोहग्रस्त नहीं होते। आपका यह कार्य मुझे मोहग्रस्त कर रहा है।
 
तात्पर्य
 उद्धव वास्तव में कभी भी मोहग्रस्त नहीं थे, किन्तु वे कहते हैं कि ये सभी विरोधी बातें मोहग्रस्त बनाने वाली प्रतीत होती हैं। कृष्ण तथा उद्धव के बीच का सारा विचार-विमर्श मैत्रेय के लाभार्थ था, जो पास ही बैठे थे। भगवान् उद्धव को परामर्श के लिए बुलाते रहते थे जब नगर पर जरासन्ध तथा अन्यों ने आक्रमण किया था और जब उन्होंने द्वारकाधीश के रूप में अपनी नैत्यिक राजसी कार्य के अंग स्वरूप महान् यज्ञ किये थे। भगवान् के लिए कोई भूत, वर्तमान तथा भविष्य नहीं होता, क्योंकि शाश्वत काल का उन पर कोई प्रभाव नहीं होता और उनसे कुछ भी छुपा नहीं है। वे शाश्वत आत्म-प्रबुद्ध हैं। अतएव परामर्श-रूपी प्रकाश पाने के लिए उनका उद्धव को बुलाना निश्चित रूप से आश्चर्यप्रद है। भगवान् के ये सारे कार्य परस्पर विरोधी प्रतीत होते हैं, यद्यपि भगवान् के नैत्यिक कार्यों में कोई विरोध नहीं है। इसलिए उन्हें उसी रूप में देखना अच्छा होगा और उनकी व्याख्या करने का कोई प्रयास नहीं किया जाना चाहिए।
 
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हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥