इत्यावेदितहार्दाय मह्यं स भगवान् पर: ।
आदिदेशारविन्दाक्ष आत्मन: परमां स्थितिम् ॥ १९ ॥
शब्दार्थ
इति आवेदित—मेरे द्वारा इस प्रकार प्रार्थना किये जाने पर; हार्दाय—मेरे हृदय के भीतर से; मह्यम्—मुझको; स:—उन; भगवान्—भगवान् ने; पर:—परम; आदिदेश—आदेश दिया; अरविन्द-अक्ष:—कमल जैसे नेत्रों वाला; आत्मन:—अपनी ही; परमाम्—दिव्य; स्थितिम्—स्थिति ।.
अनुवाद
जब मैंने पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् से अपनी यह हार्दिक इच्छा व्यक्त की तो कमलनेत्र भगवान् ने मुझे अपनी दिव्य स्थिति के विषय में उपदेश दिया।
तात्पर्य
इस श्लोक में परमाम् स्थितिम् शब्द महत्त्वपूर्ण हैं। भगवान् की दिव्य स्थिति के विषय में तब भी ब्रह्माजी से कुछ नहीं कहा गया था जब श्रीमद्भागवत के चार श्लोकों (२.९.३३-३६) की व्याख्या की गई थी। यह दिव्य स्थिति द्वारका तथा वृन्दावन में प्रदर्शित उन भक्तों के प्रति भगवान् के बर्तावों से युक्त है, जो उनकी दिव्य प्रेमाभक्ति में लगे हुए थे। जब भगवान् ने अपनी विशिष्ट दिव्य स्थिति की व्याख्या की तो वह उद्धव के ही लिए थी, इसलिए उद्धव ने विशेष रूप से मह्यम् (मुझको) कहा, यद्यपि महर्षि मैत्रेय भी वहीं बैठे थे। ऐसी दिव्य स्थिति उन लोगों की समझ में नहीं आती जिनकी भक्ति ज्ञान या सकाम कर्मों से मिश्रित होती है। भगवान् के गुह्य प्रेम के कार्यकलाप उन सामान्य भक्तों को विरले ही प्रकट किये जाते हैं, जो ज्ञान तथा योग से मिश्रित भक्ति द्वारा आकृष्ट रहते हैं। ऐसे कार्यकलाप भगवान् की अचिन्त्य लीलाएँ होते हैं।
शेयर करें
All glories to Srila Prabhupada. All glories to वैष्णव भक्त-वृंद Disclaimer: copyrights reserved to BBT India and BBT Intl.