श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 4: विदुर का मैत्रेय के पास जाना  »  श्लोक 2
 
 
श्लोक  3.4.2 
तेषां मैरेयदोषेण विषमीकृतचेतसाम् ।
निम्‍लोचति रवावासीद्वेणूनामिव मर्दनम् ॥ २ ॥
 
शब्दार्थ
तेषाम्—उनके; मैरेय—नशे के; दोषेण—दोष से; विषमीकृत—असंतुलित; चेतसाम्—जिनके मन; निम्लोचति—अस्त होता है; रवौ—सूर्य; आसीत्—घटित होता है; वेणूनाम्—बाँसों का; इव—सदृश; मर्दनम्—विनाश ।.
 
अनुवाद
 
 जिस तरह बाँसों के आपसी घर्षण से विनाश होता है उसी तरह सूर्यास्त के समय नशे के दोषों की अन्त:क्रिया से उनके मन असंतुलित हो गये और उनका विनाश हो गया।
 
तात्पर्य
 जब जगंल में आग की आवश्यकता होती है, तो परमेश्वर की इच्छा से बांसों के आपसी घर्षण से आग लग जाती है। इसी तरह यदुवंशियों का विनाश भगवान् की इच्छा से आत्मविनाश की विधि से हो गया। जिस तरह मानव प्रयास से जंगल के बीच अग्नि लगने की संभावना नहीं रहती उसी तरह ब्रह्माण्ड में ऐसी कोई शक्ति नहीं थी जो भगवान् द्वारा रक्षित यदुवंशियों का विनाश कर सकती। भगवान् ने उनके इस तरह से विनष्ट होने की इच्छा की, अतएव उन्होंने उनके आदेश का पालन किया जैसाकि तदनुज्ञात शब्द से सूचित होता है।
 
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हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥