श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 4: विदुर का मैत्रेय के पास जाना  »  श्लोक 21
 
 
श्लोक  3.4.21 
सोऽहं तद्दर्शनाह्लादवियोगार्तियुत: प्रभो ।
गमिष्ये दयितं तस्य बदर्याश्रममण्डलम् ॥ २१ ॥
 
शब्दार्थ
स: अहम्—इस तरह स्वयं मैं; तत्—उसका; दर्शन—दर्शन; आह्लाद—आनन्द के; वियोग—विरह; आर्ति-युत:—दुख से पीडि़त; प्रभो—हे प्रभु; गमिष्ये—जाऊँगा; दयितम्—इस तरह उपदेश दिया गया; तस्य—उसका; बदर्याश्रम—हिमालय स्थित बदरिकाश्रम; मण्डलम्—संगति ।.
 
अनुवाद
 
 हे विदुर, अब मैं उनके दर्शन से मिलने वाले आनन्द के अभाव में पागल हो रहा हूँ और इसे कम करने के लिए ही अब मैं संगति के लिए हिमालय स्थित बदरिकाश्रम जा रहा हूँ जैसा कि उन्होंने मुझे आदेश दिया है।
 
तात्पर्य
 उद्धव के स्तर का शुद्ध भगवद्भक्त एकसाथ विरह तथा मिलन की दुहरी अनुभूति में निरन्तर भगवान् की संगति करता है। शुद्ध भक्त क्षण भर भी भगवान् की दिव्य सेवा से विरत नहीं होता। भगवान् की सेवा करना ही शुद्ध भक्त का मुख्य कार्य है। उद्धव को भगवान् का वियोग असह्य था, अतएव भगवान् के आदेश का पालन करने के लिए ही वे बदरिकाश्रम के लिए चल पड़े, क्योंकि भगवान् का आदेश तथा भगवान् अभिन्न हैं। जब तक मनुष्य भगवान् के आदेश का पालन करने में सचेष्ट रहता है तब तक उनसे वास्तविक वियोग नहीं सताता।
 
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हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥