श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 4: विदुर का मैत्रेय के पास जाना  »  श्लोक 27
 
 
श्लोक  3.4.27 
श्री शुक उवाच
इति सह विदुरेण विश्वमूर्ते-
र्गुणकथया सुधयाप्लावितोरुताप: ।
क्षणमिव पुलिने यमस्वसुस्तां
समुषित औपगविर्निशां ततोऽगात् ॥ २७ ॥
 
शब्दार्थ
श्री-शुक: उवाच—श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा; इति—इस प्रकार; सह—साथ; विदुरेण—विदुर के; विश्व-मूर्ते:—विराट पुरुष का; गुण-कथया—दिव्य गुणों की बातचीत के दौरान; सुधया—अमृत के तुल्य; प्लावित-उरु-ताप:—अत्यधिक कष्ट से अभिभूत; क्षणम्—क्षण; इव—सदृश; पुलिने—तट पर; यमस्वसु: ताम्—उस यमुना नदी के; समुषित:—बिताया; औपगवि:—औपगव का पुत्र (उद्धव); निशाम्—रात्रि; तत:—तत्पश्चात्; अगात्—चला गया ।.
 
अनुवाद
 
 शुकदेव गोस्वामी ने कहा : हे राजन्, इस तरह यमुना नदी के तट पर विदुर से (भगवान् के) दिव्य नाम, यश, गुण इत्यादि की चर्चा करने के बाद उद्धव अत्यधिक शोक से अभिभूत हो गये। उन्होंने सारी रात एक क्षण की तरह बिताई। तत्पश्चात् वे वहाँ से चले गये।
 
तात्पर्य
 यहाँ पर कृष्ण के लिए विश्वमूर्ति शब्द का प्रयोग हुआ है। उद्धव तथा विदुर दोनों ही भगवान् कृष्ण के प्रयाण से अत्यधिक दुखी थे। वे भगवान् के दिव्य नाम, यश तथा गुणों के बारे में जितनी अधिक चर्चा करते गये उतना ही उन्हें भगवान् का चित्र सर्वत्र दृष्टिगोचर होने लगा। भगवान् के दिव्य स्वरूप का ऐसा मानस-दर्शन न तो मिथ्या है न काल्पनिक, अपितु वास्तविक परम सत्य है। जब भगवान् को विश्वमूर्ति के रूप में देखा जाता है, तो वे न तो अपना व्यक्तित्व खोते हैं न ही अपना दिव्य नित्य स्वरूप, अपितु वे सर्वत्र उसी रूप में दृष्टिगोचर होते हैं।
 
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हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥