अस्मात्—इस (ब्रह्माण्ड) से; लोकात्—पृथ्वी से; उपरते—ओझल होने पर; मयि—मेरे विषय के; ज्ञानम्—ज्ञान; मत्- आश्रयम्—मुझसे सम्बन्धित; अर्हति—योग्य होता है; उद्धव:—उद्धव; एव—निश्चय ही; अद्धा—प्रत्यक्षत:; सम्प्रति—इस समय; आत्मवताम्—भक्तों में; वर:—सर्वोपरि ।.
अनुवाद
अब मैं इस लौकिक जगत की दृष्टि से ओझल हो जाऊँगा और मैं समझता हूँ कि मेरे भक्तों में अग्रणी उद्धव ही एकमात्र ऐसा है, जिसे मेरे विषय का ज्ञान प्रत्यक्ष रूप से सौंपा जा सकता है।
तात्पर्य
इस श्लोक में ज्ञानं मद्-आश्रयम् महत्त्वपूर्ण है। दिव्य ज्ञान के तीन विभाग हैं—निर्विशेष ब्रह्म का ज्ञान, सर्वव्यापक परमात्मा का ज्ञान तथा भगवान् का ज्ञान। इन तीनों में से भगवान् के दिव्य ज्ञान का विशेष महत्त्व है और यह भगवत्-तत्त्व-विज्ञान कहलाता है। यह विशिष्ट ज्ञान शुद्ध भक्ति द्वारा प्राप्त किया जा सकता है, अन्य किसी साधन द्वारा नहीं। इसकी पुष्टि भगवद्गीता (१८-५५) में हुई है—भक्त्या मामभिजानाति यावान् यश्चास्मि तत्त्वत:—एकमात्र भक्तिमय सेवा में लगे व्यक्ति ही भगवान् की दिव्य स्थिति को ठीक से जान सकते हैं। उद्धव उस काल के भक्तों में सर्वश्रेष्ठ माने जाते थे, अतएव भगवत्कृपा से उन्हें सीधे उपेदश दिया गया जिससे इस जगत की दृष्टि से भगवान् के ओझल हो जाने के बाद लोग उद्धव के ज्ञान का लाभ उठा सकें। उद्धव को बदरिकाश्रम जाने के लिए, जहाँ भगवान् नर-नारायण अर्चाविग्रह के रूप में स्थित हैं, सलाह दिये जाने के कारणों में से यह एक कारण है। जो मनुष्य आध्यात्मिक रूप से अग्रणी है, वह मन्दिर-अर्चाविग्रह से प्रत्यक्ष प्रेरणा प्राप्त कर सकता है। इस तरह भगवद्भक्त सदैव दिव्य ज्ञान में भगवत्कृपा से उल्लेखनीय प्रगति करने के लिए भगवान् के मान्यता प्राप्त मन्दिर की शरण ग्रहण करता है।
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