विदुर:—विदुर; अपि—भी; उद्धवात्—उद्धव के स्रोत से; श्रुत्वा—सुनकर; कृष्णस्य—भगवान् कृष्ण का; परम-आत्मन:— परमात्मा का; क्रीडया—मर्त्यलोक में लीलाओं के लिए; उपात्त—असाधारण रूप से स्वीकृत; देहस्य—शरीर के; कर्माणि— दिव्य कर्म; श्लाघितानि—अत्यन्त प्रशंसनीय; च—भी ।.
अनुवाद
विदुर ने उद्धव से इस मर्त्यलोक में परमात्मा अर्थात् भगवान् कृष्ण के आविर्भाव तथा तिरोभाव के विषय में भी सुना जिसे महर्षिगण बड़ी ही लगन के साथ जानना चाहते हैं।
तात्पर्य
परमात्मा अर्थात् भगवान् श्रीकृष्ण के आविर्भाव तथा तिरोभाव का विषय महर्षियों तक के लिए रहस्य बना हुआ है। इस श्लोक में परमात्मन: शब्द महत्त्वपूर्ण है। सामान्य जीव प्राय: आत्मा कहलाता है, किन्तु भगवान् कृष्ण कभी भी सामान्य जीव नहीं हैं, क्योंकि वे परमात्मा हैं। फिर भी मनुष्य के रूप में उनका आविर्भाव तथा इस मर्त्यलोक से पुन: उनका तिरोभाव उन शोधार्थियों के लिए शोध का विषय है, जो बड़ी ही लगन के साथ शोधकार्य करते हैं। ऐसे विषय निश्चय ही अधिकाधिक रोचक हैं, क्योंकि शोधार्थियों को भगवान् का दिव्य धाम खोजना होता है, जिसमें भगवान् मर्त्यलोक की लीलाएँ समाप्त करने के बाद प्रवेश करते हैं। किन्तु महर्षियों तक को कोई जानकारी नहीं है कि इस भौतिक आकाश के परे आध्यात्मिक आकाश है जहाँ श्रीकृष्ण अपने संगियों समेत नित्य निवास करते हैं यद्यपि, उसी के साथ-साथ, वे सारे ब्रह्माण्डों में बारी-बारी से अपनी मर्त्यलोक की लीलाएँ प्रदर्शित करते रहते हैं। इसकी पुष्टि ब्रह्म-संहिता (५.३७)में हुई है—गोलोक एव निवस त्यखिलात्मभूत:—भगवान् अपनी अचिन्त्य शक्ति से अपने नित्य धाम गोलोक में रहते हैं फिर भी साथ-साथ परमात्मा रूप में वे सर्वत्र—आध्यात्मिक तथा भौतिक आकाशों में—अपने विविध रूपों द्वारा विद्यमान रहते हैं। अतएव उनके आविर्भाव तथा तिरोभाव साथ-साथ चलते रहते हैं और कोई भी निश्चित रूप से यह नहीं कह सकता कि उनमें से कौनसा अथ है और कौनसा इति है। उनकी नित्य लीलाओं का कोई आदि-अन्त नहीं है। उन्हें शुद्ध भक्त से ही जाना जा सकता है, अत: तथाकथित शोधकार्य में मूल्यवान समय नष्ट नहीं किया जाना चाहिए।
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