भगवान् के यशस्वी कर्मों तथा मर्त्यलोक में असाधारण लीलाओं को सम्पन्न करने के लिए उनके द्वारा धारण किये जाने वाले विविध दिव्य रूपों को समझ पाना उनके भक्तों के अतिरिक्त अन्य किसी के लिए अत्यन्त कठिन है और पशुओं के लिए तो वे मानसिक विक्षोभ मात्र हैं।
तात्पर्य
भगवान् के दिव्य स्वरूपों तथा लीलाओं का भगवद्गीता में जिस रूप में वर्णन हुआ है अभक्तों के लिए उन्हें समझ पाना कठिन कार्य है। भगवान् कभी भी ज्ञानियों तथा योगियों जैसे व्यक्तियों के समक्ष अपने को उद्धाटित नहीं करते। कुछ अन्य लोग भी हैं जिनकी गणना हृदय की गहराई से भगवान् से ईर्ष्या करने के कारण पशुओं में की जाती है। ऐसे ईर्ष्यालु पशुओं के लिए भगवान् के आविर्भाव तथा तिरोधान का विषय केवल मानसिक विक्षोभ है। जैसी कि भगवद्गीता (७.१५) में पुष्टि की गई है, ऐसे दुर्जन जिन्हें मात्र भौतिक भोग की ही चिन्ता रहती है, जो भारवाही पशुओं की तरह कठिन श्रम करते हैं, आसुरिक-भाव के कारण किसी भी अवस्था में भगवान् को नहीं जान पाते।
मर्त्यलोक में अपनी लीलाओं के लिए भगवान् द्वारा प्रदर्शित दिव्य शारीरिक अंशों तथा ऐसे दिव्य अंशों का आविर्भाव तथा तिरोभाव कठिन विषय हैं और जो लोग भक्त नहीं हैं उन्हें सलाह दी जाती है कि वे भगवान् के आविर्भाव तथा तिरोधान भाव की चर्चा न करें अन्यथा वे भगवान् के चरणकमलों पर और अधिक अपराध कर सकते हैं। वे आसुरी भाव से भगवान् के दिव्य आविर्भाव तथा तिरोभाव के विषय में जितनी ही अधिक चर्चा करेंगे उतना ही अधिक वे नरक के गहनतम भागों में प्रवेश करेंगे जैसाकि भगवद्गीता (१६.२०) में कहा गया है। जो भी व्यक्ति भगवान् की दिव्य प्रेम-युक्त सेवाभाव के विरुद्ध है, वह न्यूनाधिक पशु है, जिसकी पुष्टि श्रीमद्भागवत के इस श्लोक में हुई है।
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