आत्मानं च कुरुश्रेष्ठ कृष्णेन मनसेक्षितम् ।
ध्यायन् गते भागवते रुरोद प्रेमविह्वल: ॥ ३५ ॥
शब्दार्थ
आत्मानम्—स्वयं; च—भी; कुरु-श्रेष्ठ—हे कुरुओं में श्रेष्ठ; कृष्णेन—कृष्ण द्वारा; मनसा—मन से; ईक्षितम्—स्मरण किया गया; ध्यायन्—इस तरह सोचते हुए; गते—चले जाने पर; भागवते—भक्त के; रुरोद—जोर से चिल्लाया; प्रेम-विह्वल:— प्रेमभाव से अभिभूत हुआ ।.
अनुवाद
यह सुनकर कि (इस जगत को छोड़ते समय) भगवान् कृष्ण ने उनका स्मरण किया था, विदुर प्रेमभाव से अभिभूत होकर जोर-जोर से रो पड़े।
तात्पर्य
जब विदुर जान पाये कि अन्तिम समय पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् कृष्ण ने उनका स्मरण किया था, तो वे प्रेमभाव से अभिभूत हो उठे। यद्यपि वे अपने को नगण्य मानते थे, फिर भी भगवान् ने अपनी अहैतुकी कृपावश उनका स्मरण किया। विदुर ने इसे महान् कृपा के रूप में स्वीकार किया, इसीलिए वे रो पड़े। ऐसा रोना भक्ति-मार्ग में अग्रसर होने का अंतिम संकेत है। जो व्यक्ति प्रेमवश भगवान् के लिए चिल्ला सकता है, वह भक्तिमय सेवा के मार्ग में निश्चय ही सफल है।
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