भगवान् अपना दाहिना चरण-कमल अपनी बाईं जांघ पर रखे एक छोटे से बरगद वृक्ष का सहारा लिए हुए बैठे थे। यद्यपि उन्होंने सारे घरेलू सुपास त्याग दिये थे, तथापि वे उस मुद्रा में पूर्ण रुपेण प्रसन्न दीख रहे थे।
तात्पर्य
श्रील विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर के अनुसार भगवान् की बैठने की मुद्रा—नये बरगद के पेड़ पर पीठ टिकाये—भी अर्थपूर्ण है। बरगद का पेड़ अश्वत्थ इसलिए कहलाता है, क्योंकि यह तुरन्त नहीं नष्ट होता; यह अनेकानेक वर्षों तक जीवित रहता है। इस पेड़ के पाँव तथा उनकी शक्तियाँ भौतिक अवयव हैं जिनकी संख्या पाँच है—पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु तथा आकाश। बरगद के पेड़ द्वारा प्रदर्शित भौतिक शक्तियाँ भगवान् की बहिरंगा शक्तियों की प्रतिफल हैं, अतएव वे उनकी पीठ के पीछे रखी गई हैं। चूँकि यह ब्रह्माण्ड सबसे छोटा है इसलिए बरगद के वृक्ष को छोटा या शिशु कहा गया है। त्यक्त- पिप्पलम् सूचित करता है कि अब वे इस छोटे से ब्रह्माण्ड में अपनी लीलाएँ समाप्त कर चुके थे, किन्तु भगवान् नित्य तथा सदैव आनन्दमय रहते हैं, इसलिए उनके द्वारा किसी वस्तु को त्यागने या स्वीकार करने में कोई अन्तर नहीं है। अब भगवान् इस ब्रह्माण्ड को त्यागने तथा किसी अन्य ब्रह्माण्ड में जाने के लिए तैयार थे, जिस तरह सूर्य किसी एक लोक में उदय होता है और उसी समय दूसरे में अस्त होता है, किन्तु इससे उसकी अपनी स्थिति परिवर्तित नहीं होती।
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