सा—कृष्णकथा; श्रद्दधानस्य—श्रद्धापूर्वक सुनने के इच्छुक लोगों के; विवर्धमाना—क्रमश: बढ़ती हुई; विरक्तिम्— अन्यमनस्कता; अन्यत्र—अन्य बातों (ऐसी कथाओं के अतिरिक्त) में; करोति—करता है; पुंस:—ऐसे व्यस्त व्यक्ति का; हरे:— भगवान् का; पद-अनुस्मृति—भगवान् के चरणकमलों का निरन्तर स्मरण; निर्वृतस्य—ऐसा दिव्य आनन्द प्राप्त करने वाले का; समस्त-दु:ख—सारे कष्ट; अप्ययम्—दूर हुए; आशु—तुरन्त; धत्ते—सम्पन्न करता है ।.
अनुवाद
जो व्यक्ति ऐसी कथाओं का निरन्तर श्रवण करते रहने के लिए आतुर रहता है, उसके लिए कृष्णकथा क्रमश: अन्य सभी बातों के प्रति उसकी उदासीनता को बढ़ा देती है। वह भक्त जिसने दिव्य आनन्द प्राप्त कर लिया हो उसके द्वारा भगवान् के चरणकमलों का ऐसा निरन्तर स्मरण तुरन्त ही उसके सारे कष्टों को दूर कर देता है।
तात्पर्य
हमें निश्चित रूप से जान लेना चाहिए कि परम स्तर पर कृष्णकथा तथा कृष्ण एक हैं। भगवान् परम सत्य हैं, अतएव उनका नाम, रूप, गुण, इत्यादि, जिन्हें कृष्णकथा समझा जाता है, उनसे अभिन्न होते हैं। भगवान् द्वारा कही गई भगवद्गीता स्वयं कृष्ण के ही समान है, जब कोई शुद्ध भक्त भगवद्गीता पढ़ता है, तो यह भगवान् को अपने सामने देखने जैसा होता है, किन्तु लौकिक बखेड़ा करने वाले के लिए यह ऐसा नहीं है। जब कोई भगवद्गीता पढ़ता है, बशर्ते कि वह उस रीति से पढ़ी जाय जिस रूप में स्वयं भगवान् ने गीता में संस्तुति की है, तो भगवान् की सारी शक्तियाँ वहाँ होती हैं। ऐसा नहीं है कि कोई भगवद्गीता की मूर्खतापूर्ण व्याख्या करके दिव्य लाभ पा सके। जो व्यक्ति किसी प्रच्छन्न उद्देश्य के लिए भगवद्गीता का कोई कृत्रिम अर्थ या व्याख्या करना चाहता है, वह श्रद्दधान पुंस: अर्थात् कृष्ण कथा के प्रामाणिक श्रवण में उत्सुकतापूर्वक लगा रहने वाला नहीं है। ऐसा व्यक्ति भगवद्गीता के पठन से कोई लाभ नहीं प्राप्त कर सकता चाहे वह सामान्य जन की दृष्टि में कितना बड़ा विद्वान क्यों न हो। श्रद्दधान अथवा श्रद्धावान भक्त भगवद्गीता के सारे लाभ प्राप्त कर सकता है, क्योंकि वह भगवान् की सर्वशक्तिमत्ता के द्वारा दिव्य आनन्द प्राप्त करता है, जो आसक्ति को दूर करता है और समस्त भौतिक कष्टों को निरस्त करता है। अपने वास्तविक अनुभव से एकमात्र भक्त ही विदुर द्वारा कहे गये इस श्लोक का आशय समझ सकता है। शुद्ध भक्त कृष्णकथा सुनकर भगवान् के चरणकमलों का निरन्तर स्मरण करते रहने से जीवन का आनन्द लेता है। ऐसे भक्त के लिए भौतिक जगत जैसी कोई वस्तु नहीं होती और अत्यधिक विज्ञापित ब्रह्मानन्द का सुख उस भक्त के लिए नगण्य होता है, जो आनन्द के दिव्य सागर में डुबकी लगा रहा हो।
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