तान्—उन सब; शोच्य—दयनीय; शोच्यान्—दयनीयों का; अविद:—अज्ञ; अनुशोचे—मुझे तरस आती है; हरे:—भगवान् की; कथायाम्—कथाओं के; विमुखान्—विमुखों पर; अघेन—पापपूर्ण कार्यों के कारण; क्षिणोति—क्षीण पड़ते; देव:—भगवान्; अनिमिष:—नित्यकाल; तु—लेकिन; येषाम्—जिसकी; आयु:—आयु; वृथा—व्यर्थ; वाद—दार्शनिक चिन्तन; गति— चरमलक्ष्य; स्मृतीनाम्—विभिन्न अनुष्ठानों का पालन करने वालों के ।.
अनुवाद
हे मुनि, जो व्यक्ति अपने पाप कर्मों के कारण दिव्य कथा-प्रसंगों से विमुख रहते हैं और फलस्वरूप महाभारत (भगवद्गीता) के उद्देश्य से वंचित रह जाते हैं, वे दयनीय द्वारा भी दया के पात्र होते हैं। मुझे भी उन पर तरस आती है, क्योंकि मैं देख रहा हूँ कि किस तरह नित्यकाल द्वारा उनकी आयु नष्ट की जा रही है। वे दार्शनिक चिन्तन, जीवन के सैद्धान्तिक चरम लक्ष्यों तथा विभिन्न कर्मकाण्डों की विधियों को प्रस्तुत करने में स्वयं को लगाये रहते हैं।
तात्पर्य
प्रकृति के गुणों के अनुसार मनुष्यों तथा भगवान् के बीच तीन प्रकार के सम्बन्ध होते हैं। जो लोग तमोगुणी तथा रजोगुणी हैं, वे ईश्वर के अस्तित्व के विमुख रहते हैं या वे ईश्वर के अस्तित्व को औपचारिक आपूर्तिकर्ता के पद पर मानते हैं। उनके ऊपर वे हैं, जो सतोगुणी होते हैं। ये दूसरी श्रेणी के लोग परब्रह्म को निर्विशेष मानते हैं। वे भक्ति सम्प्रदाय को स्वीकार करते हैं जिसमें कृष्णकथा सुनना सर्वप्रथम साधन के रूप में होता है, साध्य रूप में नहीं। उनसे भी ऊपर वे हैं, जो शुद्ध भक्त हैं। वे भौतिक सतोगुण के ऊपर दिव्य अवस्था में स्थित होते हैं। ऐसे लोग निश्चित रूप से आश्वस्त रहते हैं कि भगवान् के नाम, रूप, यश, गुण इत्यादि परम स्तर पर एक दूसरे से अभिन्न होते हैं। उनके लिए कृष्णकथा का सुनना कृष्ण के आमने-सामने मिलने के तुल्य होता है। इस श्रेणी के लोगों के अनुसार जो भगवान् की शुद्ध भक्ति को प्राप्त होते हैं, मानव जीवन का सर्वोच्च लक्ष्य पुरुषार्थ है अर्थात् भगवान् की भक्ति है, जो जीवन का असली मिशन है। चूँकि निर्विशेषवादी लोग मानसिक चिन्तन में लगे रहते हैं और भगवान् में श्रद्धा नहीं रखते, अतएव उनका कृष्णकथा सुनने से कोई सरोकार नहीं होता। ऐसे लोग उच्चकोटि के शुद्ध भक्तों की दया के पात्र हैं। दयनीय निर्विशेषवादी उन पर तरस खाते हैं, जो तमो तथा रजो गुणों द्वारा प्रभावित होते हैं, किन्तु भगवान् के शुद्ध भक्त इन दोनों पर तरस खाते हैं, क्योंकि ये दोनों ही मानव जीवन का अपना अमूल्य समय झूठे कार्यों, इन्द्रियभोगों तथा विभिन्न वादों एवं जीवन लक्ष्यों के मानसिक चिन्तन के प्रदर्शन में नष्ट करते हैं।
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