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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 5: मैत्रेय से विदुर की वार्ता  »  श्लोक 23
 
 
श्लोक  3.5.23 
भगवानेक आसेदमग्र आत्मात्मनां विभु: ।
आत्मेच्छानुगतावात्मा नानामत्युपलक्षण: ॥ २३ ॥
 
शब्दार्थ
भगवान्—भगवान्; एक:—अद्वय; आस—था; इदम्—यह सृष्टि; अग्रे—सृष्टि के पूर्व; आत्मा—अपने स्वरूप में; आत्मनाम्— जीवों के; विभु:—स्वामी; आत्मा—आत्मा; इच्छा—इच्छा; अनुगतौ—लीन होकर; आत्मा—आत्मा; नाना-मति—विभिन्न दृष्टियाँ; उपलक्षण:—लक्षण ।.
 
अनुवाद
 
 समस्त जीवों के स्वामी, भगवान् सृष्टि के पूर्व अद्वय रूप में विद्यमान थे। केवल उनकी इच्छा से ही यह सृष्टि सम्भव होती है और सारी वस्तुएँ पुन: उनमें लीन हो जाती हैं। इस परम पुरुष को विभिन्न नामों से उपलक्षित किया जाता है।
 
तात्पर्य
 यहाँ पर महर्षि श्रीमद्भागवत के चार आदि श्लोकों के अभिप्राय की व्याख्या प्रारम्भ करते हैं। यद्यपि मायावाद (निर्विशेषवाद) के अनुयायियों की श्रीमद्भागवत तक पैठ नहीं है, किन्तु कभी-कभी वे उसके चार आदि श्लोकों की खींचतान कर काल्पनिक व्याख्या करते हैं। किन्तु हमें मैत्रेय मुनि द्वारा यहाँ पर दी गई असली व्याख्या को स्वीकार करना चाहिए, क्योंकि उन्होंने इसे उद्धव के साथ प्रत्यक्ष भगवान् के मुख से सुना था। इन चार आदि श्लोकों की प्रथम पंक्ति है अहम् एवासम् एवाग्रे। मायावादी इस अहम् शब्द की ऐसी गलत व्याख्या करते हैं जिसे व्याख्याकार के अतिरिक्त अन्य कोई नहीं समझ सकता। यहाँ पर अहम् की व्याख्या परम पुरुषोत्तम भगवान् के अर्थ में की गई है, व्यष्टि जीवों के अर्थ में नहीं। सृष्टि के पूर्व केवल भगवान् थे। तब कोई भी पुरुष-अवतार नहीं थे और जीव तो थे ही नहीं, न ही भौतिक शक्ति थी जिससे व्यक्त सृष्टि प्रभावित होती है। तब सारे पुरुष- अवतार तथा भगवान् की सारी विभिन्न शक्तियाँ एकमात्र भगवान् में समाहित थीं। यहाँ पर भगवान् को अन्य समस्त जीवों का स्वामी कहा गया है। वे सूर्यगोलक के तुल्य हैं और सारे जीव सूर्य की किरणों के अणु के तुल्य हैं। सृष्टि के पूर्व भगवान् के अस्तित्व की पुष्टि श्रुतियों द्वारा हुई है—वासुदेवो वा इदं अग्र आसीत् न ब्रह्मा न च शङ्कर:। एको वै नारायण आसीन्न ब्रह्मा नेशाना:। चूँकि प्रत्येक वस्तु भगवान् से उद्भूत है, वे सदैव अकेले अद्वय रूप में विद्यमान रहते हैं। वे इस तरह विद्यमान रह सकते हैं, क्योंकि वे सर्व-सम्पूर्ण तथा सर्वशक्तिमान हैं। उनके अतिरिक्त हर वस्तु, यहाँ तक कि उनके स्वांश विष्णुतत्त्व भी, उनके अंश हैं। सृष्टि के पूर्व न तो कारणार्णवशायी विष्णु थे, न गर्भोदकशायी विष्णु या क्षीरोदकशायी विष्णु या ब्रह्मा अथवा शंकर ही थे। विष्णुतत्त्व तथा ब्रह्मा इत्यादि सारे जीव भिन्नांश हैं। यद्यपि आध्यात्मिक जगत भगवान् के साथ था, किन्तु भौतिक जगत उनमें सुसुप्त था। केवल उनकी इच्छा से भौतिक जगत बनता तथा बिगड़ता है। वैकुण्ठलोक की विविधता भगवान् से एकाकार है, जिस तरह सैनिकों की विविधता राजा से तदाकार होती है। जैसाकि भगवद्गीता (९.७) में बतलाया गया है भौतिक सृष्टि भगवान् की इच्छा से होती है और सृष्टि तथा प्रलय के कुछ अन्तराल के बीच की अवधियों में जीव तथा भौतिक शक्ति उनमें सुसुप्त रहते हैं।
 
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