सोऽप्यंशगुणकालात्मा भगवद्दृष्टिगोचर: ।
आत्मानं व्यकरोदात्मा विश्वस्यास्य सिसृक्षया ॥ २८ ॥
शब्दार्थ
स:—महत् तत्त्व; अपि—भी; अंश—पुरुष स्वांश; गुण—मुख्यतया तमोगुण; काल—काल की अवधि; आत्मा—पूर्णचेतना; भगवत्—भगवान् की; दृष्टि-गोचर:—दृष्टि की सीमा; आत्मानम्—अनेक भिन्न-भिन्न रूपों को; व्यकरोत्—विभेदित; आत्मा— आगार; विश्वस्य—होने वाले जीवों का; अस्य—इस; सिसृक्षया—मिथ्या अहंकार को उत्पन्न करता है ।.
अनुवाद
तत्पश्चात् महत् तत्त्व अनेक भिन्न-भिन्न भावी जीवों के आगार रूपों में विभेदित हो गया। यह महत् तत्त्व मुख्यतया तमोगुणी होता है और यह मिथ्या अहंकार को जन्म देता है। यह भगवान् का स्वांश है, जो सर्जनात्मक सिद्धान्तों की पूर्ण चेतना तथा फलनकाल से युक्त होता है।
तात्पर्य
महत् तत्त्व शुद्ध आत्मा एवं भौतिक जगत के बीच का माध्यम है। यह पदार्थ तथा आत्मा का सन्धिस्थल है जहाँ से जीव का मिथ्या अहंकार उत्पन्न होता है। सारे जीव भगवान् के भिन्नांश हैं। मिथ्या अहंकार के दबाव में आकर बद्धात्माएँ पूर्ण पुरुषोतत्तम भगवान् के भिन्नांश होते हुए भी भौतिक प्रकृति की भोक्ता होने का दावा करती हैं। यह मिथ्या अहंकार भौतिक जगत की बन्धक शक्ति है। भगवान् मोहग्रस्त बद्धात्माओं को इस मिथ्या अहंकार से मुक्त होने के लिए बारम्बार अवसर प्रदान करते हैं, इसी के कारण भौतिक सृष्टि कालान्तरों पर होती है। वे बद्धात्माओं को अपने मिथ्या अहंकार के कार्यों को सुधारने की सारी सुविधाएँ प्रदान करते हैं, किन्तु वे भगवान् के भिन्नांश होने की उनकी यत्किंचित स्वतंत्रता में व्यवधान नहीं डालते।
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