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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 5: मैत्रेय से विदुर की वार्ता  »  श्लोक 3
 
 
श्लोक  3.5.3 
जनस्य कृष्णाद्विमुखस्य दैवा-
दधर्मशीलस्य सुदु:खितस्य ।
अनुग्रहायेह चरन्ति नूनं
भूतानि भव्यानि जनार्दनस्य ॥ ३ ॥
 
शब्दार्थ
जनस्य—सामान्य व्यक्ति की; कृष्णात्—भगवान् कृष्ण से; विमुखस्य—विमुख, मुँह फेरने वाले का; दैवात्—माया के प्रभाव से; अधर्म-शीलस्य—अधर्म में लगे हुए का; सु-दु:खितस्य—सदैव दुखी रहने वाले का; अनुग्रहाय—उनके प्रति दयालु होने के कारण; इह—इस जगत में; चरन्ति—विचरण करते हैं; नूनम्—निश्चय ही; भूतानि—लोग; भव्यानि—अत्यन्त परोपकारी आत्माएँ; जनार्दनस्य—भगवान् की ।.
 
अनुवाद
 
 हे प्रभु, महान् परोपकारी आत्माएँ पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् की ओर से पृथ्वी पर उन पतित आत्माओं पर अनुकंपा दिखाने के लिए विचरण करती है, जो भगवान् की अधीनता के विचार मात्र से ही विमुख रहते हैं।
 
तात्पर्य
 परमेश्वर की इच्छाओं के प्रति आज्ञाकारी होना हर जीव की स्वाभाविक स्थिति है। किन्तु विगत दुष्कर्मों के कारण ही जीव भगवान् की अधीनता के विचार से मुख मोड़ता है और भौतिक संसार के सारे कष्टों को भोगता है। किसी को भगवान श्रीकृष्ण की भक्तिमय सेवा के अलावा कुछ भी नहीं करना होता है। अतएव भगवान की दिव्य प्रेमाभक्ति के अतिरिक्त कोई भी कार्य न्यूनाधिक परम इच्छा के विरुद्ध कार्य है। समस्त सकाम कर्म, अनुभवगम्य दर्शन तथा योग भगवान् की अधीनता भावना के न्यूनाधिक विरुद्ध है और जो जीव ऐसे विद्रोहपूर्ण कार्यों में लगा हुआ है, वह प्रकृति के उन नियमों द्वारा प्राय: तिरस्कृत किया जाता है, जो भगवान् के अधीन है। भगवान् के महान् शुद्ध भक्त पतितों के प्रति दयालु होते हैं, इसलिए वे आत्माओं को भगवद्धाम वापस लाने के उद्देश्य से संसार भर में विचरण करते रहते हैं। ऐसे शुद्ध भगवद्भक्त पतितात्माओं का उद्धार करने के लिए उन के पास ईश्वर का सन्देश लेकर जाते हैं, अतएव सामान्य व्यक्ति को, जो भगवान् की बहिरंगा शक्ति के प्रभाव से मोहग्रस्त हुआ रहता है, उनकी संगति का लाभ उठाना चाहिए।
 
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