श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 5: मैत्रेय से विदुर की वार्ता  »  श्लोक 30
 
 
श्लोक  3.5.30 
अहंतत्त्वाद्विकुर्वाणान्मनो वैकारिकादभूत् ।
वैकारिकाश्च ये देवा अर्थाभिव्यञ्जनं यत: ॥ ३० ॥
 
शब्दार्थ
अहम्-तत्त्वात्—मिथ्या अहंकार के तत्त्व से; विकुर्वाणात्—रूपान्तर द्वारा; मन:—मन; वैकारिकात्—सतोगुण के साथ अन्त:क्रिया द्वारा; अभूत्—उत्पन्न हुआ; वैकारिका:—अच्छाई से अन्त:क्रिया द्वारा; च—भी; ये—ये सारे; देवा:—देवता; अर्थ—घटना सम्बन्धी; अभिव्यञ्जनम्—भौतिक ज्ञान; यत:—स्रोत ।.
 
अनुवाद
 
 मिथ्या अहंकार सतोगुण से अन्त:क्रिया करके मन में रूपान्तरित हो जाता है। सारे देवता भी जो घटनाप्रधान जगत को नियंत्रित करते हैं, उसी सिद्धान्त (तत्त्व), अर्थात् मिथ्या अहंकार तथा सतोगुण की अन्त:क्रिया के परिणाम हैं।
 
तात्पर्य
 मिथ्या अहंकार प्रकृति के विभिन्न गुणों से अन्त:क्रिया करके घटनाप्रधान जगत में समस्त वस्तुओं का स्रोत है।
 
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