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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 5: मैत्रेय से विदुर की वार्ता  »  श्लोक 31
 
 
श्लोक  3.5.31 
तैजसानीन्द्रियाण्येव ज्ञानकर्ममयानि च ॥ ३१ ॥
 
शब्दार्थ
तैजसानि—रजोगुण; इन्द्रियाणि—इन्द्रियाँ; एव—निश्चय ही; ज्ञान—ज्ञान, दार्शनिक चिन्तन; कर्म—सकाम कर्म; मयानि— प्रधान रूप से; —भी ।.
 
अनुवाद
 
 इन्द्रियाँ निश्चय ही मिथ्या अहंकारजन्य रजोगुण की परिणाम हैं, अतएव दार्शनिक चिन्तनपरक ज्ञान तथा सकाम कर्म रजोगुण के प्रधान उत्पाद हैं।
 
तात्पर्य
 मिथ्या अहंकार का प्रधान कार्य ईश्वरविहीनता है। जब कोई व्यक्ति भगवान् के नित्य अधीन अंश के रूप में अपनी स्वाभाविक स्थिति को भूल जाता है और स्वतंत्र रूप से सुखी बनना चाहता है, तो वह मुख्यत: दो तरह से कार्य करता है। सर्वप्रथम वह अपने निजी लाभ या इन्द्रियतृप्ति के लिए सकाम कर्म करने का प्रयास करता है और दीर्घकाल तक ऐसे सकाम कर्म करते रहने के बाद जब वह हताश हो जाता है, तो वह दार्शनिक चिन्तक बन जाता है और अपने को ईश्वर-जैसे स्तर पर समझने लगता है। भगवान् से तदाकार होने का यह मिथ्या विचार माया का अन्तिम पाश होता है, जो जीव को मिथ्या अहंकार के अधीन विस्मृति के बन्धन में फँसा लेती है।

मिथ्या अहंकार के पाश से मुक्ति का सर्वोत्तम उपाय है परब्रह्म के विषय में दार्शनिक चिन्तन की आदत का परित्याग। मनुष्य को निश्चित रूप से यह जान लेना चाहिए कि परब्रह्म का साक्षात्कार अपूर्ण अहंकारी व्यक्ति के दार्शनिक चिन्तन द्वारा कभी नहीं हो सकता। परब्रह्म या पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् का साक्षात्कार ऐसे प्रामाणिक अधिकारी से उनके विषय में विनय तथा प्रेमपूर्वक श्रवण द्वारा किया जा सकता है, जो बारह महाजनों में से एक हो, जिसका उल्लेख श्रीमद्भागवत में हुआ है। ऐसे प्रयास के द्वारा ही मनुष्य भगवान् की मोहमयी शक्ति को जीत सकता है, यद्यपि अन्यों के लिए यह दुर्लंघ्य है, जिसकी पुष्टि भगवद्गीता (७.१४) में हुई है।

 
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