हिंदी में पढ़े और सुनें
भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 5: मैत्रेय से विदुर की वार्ता  »  श्लोक 33
 
 
श्लोक  3.5.33 
कालमायांशयोगेन भगवद्वीक्षितं नभ: ।
नभसोऽनुसृतं स्पर्शं विकुर्वन्निर्ममेऽनिलम् ॥ ३३ ॥
 
शब्दार्थ
काल—काल; माया—बहिरंगा शक्ति; अंश-योगेन—अंशत:मिश्रित; भगवत्—भगवान्; वीक्षितम्—दृष्टिपात किया हुआ; नभ:—आकाश; नभस:—आकाश से; अनुसृतम्—इस तरह स्पर्शित होकर; स्पर्शम्—स्पर्श; विकुर्वत्—रूपान्तरित होकर; निर्ममे—निर्मित हुआ; अनिलम्—वायु ।.
 
अनुवाद
 
 तत्पश्चात् भगवान् ने आकाश पर नित्यकाल तथा बहिरंगा शक्ति से अंशत: मिश्रित दृष्टिपात किया और इस तरह स्पर्श की अनुभूति विकसित हुई जिससे आकाश में वायु उत्पन्न हुई।
 
तात्पर्य
 सारी भौतिक सृष्टियाँ सूक्ष्म से स्थूल बनती है। सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड इसी तरह से विकसित हुआ है। आकाश से स्पर्श अनुभूति विकसित हुई जो नित्यकाल, बहिरंगा शक्ति तथा भगवान् के दृष्टिपात का मिश्रण है। यह स्पर्श अनुभूति आकाश में वायु के रूप में विकसित हो गई। इसी तरह अन्य सारा स्थूल पदार्थ भी सूक्ष्म से स्थूल में विकसित हुआ—ध्वनि आकाश में, स्पर्श वायु में, रूप अग्नि में, स्वाद जल में तथा गन्ध पृथ्वी में विकसित हुई।
 
शेयर करें
       
 
  All glories to Srila Prabhupada. All glories to  वैष्णव भक्त-वृंद
  Disclaimer: copyrights reserved to BBT India and BBT Intl.

 
>  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥