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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 5: मैत्रेय से विदुर की वार्ता  »  श्लोक 38
 
 
श्लोक  3.5.38 
एते देवा: कला विष्णो: कालमायांशलिङ्गिन: ।
नानात्वात्स्वक्रियानीशा: प्रोचु: प्राञ्जलयो विभुम् ॥ ३८ ॥
 
शब्दार्थ
एते—इन सारे भौतिक तत्त्वों में; देवा:—नियंत्रक देवता; कला:—अंश; विष्णो:—भगवान् के; काल—काल; माया— बहिरंगा शक्ति; अंश—अंश; लिङ्गिन:—इस तरह देहधारी; नानात्वात्—विभिन्नता के कारण; स्व-क्रिया—निजी कार्य; अनीशा:—न कर पाने के कारण; प्रोचु:—कहा; प्राञ्जलय:—मनोहारी; विभुम्—भगवान् को ।.
 
अनुवाद
 
 उपर्युक्त समस्त भौतिक तत्त्वों के नियंत्रक देव भगवान् विष्णु के शक्त्याविष्ट अंश हैं। वे बहिरंगा शक्ति के अन्तर्गत नित्यकाल द्वारा देह धारण करते हैं और वे भगवान् के अंश हैं। चूँकि उन्हें ब्रह्माण्डीय दायित्वों के विभिन्न कार्य सौंपे गये थे और चूँकि वे उन्हें सम्पन्न करने में असमर्थ थे, अतएव उन्होंने भगवान् की मनोहारी स्तुतियाँ निम्नलिखित प्रकार से कीं।
 
तात्पर्य
 ब्रह्माण्डीय कार्य व्यापार की व्यवस्था के लिए उच्चतर लोकों में निवास करने वाले विविध नियंत्रक देवताओं की अवधारणा काल्पनिक नहीं है जैसाकि अल्पज्ञ व्यक्ति प्रस्तावित करते हैं। ये देवतागण भगवान् विष्णु के विस्तारित अंश हैं और ये काल, बहिरंगा शक्ति तथा परमेश्वर की आंशिक चेतना द्वारा देह पाते हैं। मनुष्य, पशु, पक्षी इत्यादि भी भगवान् के अंश हैं और उनके भी विभिन्न भौतिक शरीर होते हैं, किन्तु वे भौतिक मामलों के नियंत्रक देवता नहीं है प्रत्युत वे ऐसे देवताओं द्वारा नियंत्रित होते हैं। ऐसा नियंत्रण निरर्थक नहीं होता। यह उतना ही आवश्यक है जितना कि आधुनिक राज्य के मामलों के लिए नियंत्रक विभाग होते हैं। नियंत्रित जीवों द्वारा देवताओं का तिरस्कार नहीं होना चाहिए। वे सभी भगवान् के महान् भक्त होते हैं, जिन्हें विश्व के मामलों के कुछ कार्य सम्पन्न करने का भार सौंपा गया है। कोई व्यक्ति यमराज पर क्रुद्ध हो सकता है कि वह पापी आत्माओं को दण्ड देने का अप्रशंसित कार्य करता है, किन्तु यमराज भगवान् के अधिकृत भक्तों में से हैं। इसी तरह अन्य सारे देवता हैं। भगवद्भक्त कभी भी ऐसे नियुक्त देवताओं द्वारा नियंत्रित नहीं होता जो कि भगवान् के सहायक के रुप में कार्य करते हैं, किन्तु भक्त उनके उन उत्तरदायित्वपूर्ण पदों के कारण उनका सम्मान करता है जिन पर भगवान् ने उन्हें नियुक्त किया है। साथ ही, भगवद्भक्त उन्हें मूर्खतावश परमेश्वर नहीं मान बैठता। केवल मूर्ख लोग ही देवताओं को विष्णु के तुल्य मानते हैं। वस्तुत: वे सभी विष्णु के सेवकों के रूप में नियुक्त हैं ।

जो कोई भी भगवान् तथा देवताओं को समान स्तर पर रखता है, वह पाषण्डी या नास्तिक कहलाता है। देवताओं की पूजा उन्हीं व्यक्तियों द्वारा की जाती है, जो न्यूनाधिक ज्ञान, योग तथा कर्म की विधियों के पालक हैं—अर्थात् निर्विशेषवादी, ध्यानी तथा सकाम कर्मीं हैं। किन्तु भक्तगण एकमात्र भगवान् विष्णु की पूजा करते हैं। यह पूजा किसी भौतिक लाभ के लिए नहीं होती जिसकी कामना सारे भौतिकतावादियों द्वारा, यहाँ तक कि मोक्षकामियों, योगियों तथा सकाम कर्मियों द्वारा भी, की जाती है। भक्तगण परमेश्वर की पूजा भगवान् की शुद्ध भक्ति प्राप्त करने के लिए करते हैं। किन्तु जिनके पास मानव जीवन के मुख्य उद्देश्य ईश प्रेम को प्राप्त करने के लिए कोई कार्यक्रम नहीं होता उनके द्वारा भगवान् नहीं पूजे जाते। ईश्वर के साथ प्रेमपूर्ण सम्बन्ध से विमुख व्यक्ति कुछ हद तक अपने ही कर्मों द्वारा तिरस्कृत होते हैं।

भगवान् प्रत्येक जीव के प्रति उसी तरह समभाव रखते हैं, जिस तरह बहती हुई गंगा। गंगा-जल हर व्यक्ति की शुद्धि के निमित्त है, तो भी गंगा के तट के वृक्षों का महत्त्व भिन्न होता है। गंगा के तट पर आम्रवृक्ष जल पीता है और निम्ब वृक्ष भी उसी जल को पीता है। किन्तु दोनों वृक्षों के फल भिन्न भिन्न होते है। एक में स्वर्गिक मिठास होती है और दूसरें में नारकीय तिक्तता। निम्ब की तिरस्कृत तिक्तता उसके विगत कर्म के कारण है, जिस तरह कि आम की मधुरता भी उसके अपने कर्म के कारण है। भगवद्गीता (१६.१९) में भगवान् ने कहा है—

तामहं द्विषत: क्रूरान् संसारेषु नराधमान्।

क्षिपाम्यजस्रमशुभान् आसुरीष्वेव योनिषु ॥

“जो लोग ईर्ष्यालु तथा दुर्जन हैं और नराधम हैं उन्हें मैं भवसागर में विभिन्न आसुरी योनियों में डालता रहता हूँ।” यमराज जैसे देवता तथा अन्य नियंत्रक उन अवांछित बद्धात्माओं के लिए हैं, जो ईश्वर के साम्राज्य की शान्ति भंग करने में सदैव लगे रहते हैं। चूँकि ये सारे देवता भगवान् के विश्वस्त भक्त-सेवक हैं, अतएव इनका कभी भी तिरस्कार नहीं किया जाना चाहिए।

 
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