देवा ऊचु:
नमाम ते देव पदारविन्दं
प्रपन्नतापोपशमातपत्रम् ।
यन्मूलकेता यतयोऽञ्जसोरु-
संसारदु:खं बहिरुत्क्षिपन्ति ॥ ३९ ॥
शब्दार्थ
देवा: ऊचु:—देवताओं ने कहा; नमाम—हम सादर नमस्कार करते हैं; ते—तुम्हें; देव—हे प्रभु; पद-अरविन्दम्—चरणकमल; प्रपन्न—शरणागत; ताप—कष्ट; उपशम—शमन करता है; आतपत्रम्—छाता; यत्-मूल-केता:—चरणकमलों की शरण; यतय:—महर्षिगण; अञ्जसा—पूर्णतया; उरु—महान्; संसार-दु:खम्—संसार के दुख; बहि:—बाहर; उत्क्षिपन्ति—बलपूर्वक फेंक देते हैं ।.
अनुवाद
देवताओं ने कहा : हे प्रभु, आपके चरणकमल शरणागतों के लिए छाते के समान हैं, जो संसार के समस्त कष्टों से उनकी रक्षा करते हैं। सारे मुनिगण उस आश्रय के अन्तर्गत समस्त भौतिक कष्टों को निकाल फेंकते हैं। अतएव हम आपके चरणकमलों को सादर नमस्कार करते है।
तात्पर्य
ऐसे अनेक साधु-संत हैं, जो पुनर्जन्म तथा अन्य समस्त भौतिक कष्टों पर विजय पाने के प्रयास में लगे रहते हैं। किन्तु इनमें से जो लोग भगवान् के चरणकमलों की शरण ग्रहण करते हैं, वे बिना कठिनाई के ऐसे सारे कष्टों को पूरी तरह उतार फेंक सकते हैं। अन्य लोग जो विविध प्रकार के दिव्य कार्यों में लगे रहते है ऐसा नहीं कर सकते। उनके लिए ऐसा कर पाना बहुत कठिन है। वे भगवान् के चरणकमलों की शरण में गये बिना मुक्त होने के लिए कृत्रिम विधि का चिन्तन कर सकते है, किन्तु ऐसा सम्भव नहीं हैं। ऐसी मिथ्या मुक्ति से मनुष्य पुन: इस भौतिक जगत में आ गिरता है चाहे वह कितनी भी कठिन तपस्या क्यों न किये हो। यह उन देवताओं का मत है, जो न केवल वैदिक ज्ञान में पटु हैं, अपितु भूत, वर्तमान तथा भविष्य के भी द्रष्टा हैं। देवताओं के मत महत्त्वपूर्ण हैं, क्योंकि देवता ही विश्व व्यवस्था सम्बन्धी कार्यव्यापार का पद भार सँभालने के लिए प्रधिकृत होते हैं। वे भगवान् द्वारा उनके विश्वसनीय सेवकों के रूप में नियुक्त रहते हैं।
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