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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 5: मैत्रेय से विदुर की वार्ता  »  श्लोक 4
 
 
श्लोक  3.5.4 
तत्साधुवर्यादिश वर्त्म शं न:
संराधितो भगवान् येन पुंसाम् ।
हृदि स्थितो यच्छति भक्तिपूते
ज्ञानं सतत्त्वाधिगमं पुराणम् ॥ ४ ॥
 
शब्दार्थ
तत्—इसलिए; साधु-वर्य—हे सन्तों में सर्वश्रेष्ठ; आदिश—आदेश दें; वर्त्म—मार्ग; शम्—शुभ; न:—हमारे लिए; संराधित:— पूरी तरह सेवित; भगवान्—भगवान्; येन—जिससे; पुंसाम्—जीव का; हृदि स्थित:—हृदय में स्थित; यच्छति—प्रदान करता है; भक्ति-पूते—शुद्ध भक्त को; ज्ञानम्—ज्ञान; —वह; तत्त्व—सत्य; अधिगमम्—जिससे कोई सीखता है; पुराणम्— प्रामाणिक, प्राचीन ।.
 
अनुवाद
 
 इसलिए, हे महर्षि, आप मुझे पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् की दिव्य भक्ति के विषय में उपदेश दें जिससे हर एक के हृदय में स्थित भगवान् भीतर से परम सत्य विषयक वह ज्ञान प्रदान करने के लिए प्रसन्न हों जो कि प्राचीन वैदिक सिद्धान्तों के रूप में उन लोगों को ही प्रदान किया जाता है, जो भक्तियोग द्वारा शुद्ध हो चुके है।
 
तात्पर्य
 जैसाकि श्रीमद्भागवत के प्रथम स्कंध में पहले ही बतलाया जा चुका है, ज्ञाता की बोध-क्षमता के अनुसार परम सत्य की अनुभूति तीन विभिन्न अवस्थाओं में की जाती है यद्यपि वे एक ही हैं। सबसे समर्थ योगी (अध्यात्मवादी) भगवान् का शुद्ध भक्त है, जो सकाम कर्मों या दार्शनिक चिन्तन से रंचमात्र भी कलुषित नहीं होता। एकमात्र भक्ति द्वारा ही मनुष्य का हृदय कर्म, ज्ञान तथा योग जैसे भौतिक आवरणों से पूर्णतया शुद्ध हो जाता है। केवल ऐसी ही शुद्ध अवस्था में हर जीव के हृदय में व्यष्टि आत्मा के साथ विराजमान भगवान् उपदेश देते हैं जिससे भक्त अन्तिम गन्तव्य अर्थात् भगवद्धाम पहुँच सकता है। इसकी पुष्टि भगवद्गीता (१०.१०) में हुई है—तेषां सततयुक्तानां भजताम्। जब भगवान् भक्त की भक्ति से तुष्ट होते हैं तभी वे ज्ञान प्रदान करते हैं जिस तरह उन्होंने अर्जुन तथा उद्धव के साथ किया।

ज्ञानी, योगी तथा कर्मीजन भगवान् के ऐसे प्रत्यक्ष सहयोग की अपेक्षा नहीं कर सकते। वे न तो भगवान् को दिव्य प्रेमाभक्ति द्वारा तुष्ट करने में समर्थ होते हैं, न ही वे भगवान् की इस प्रकार की सेवा में विश्वास रखते हैं। वैधी भक्ति के नियमों के अन्तर्गत सम्पन्न की गई भक्ति-विधि की परिभाषा शास्त्रों द्वारा दी गई है और महान् आचार्यों द्वारा इनकी संपुष्टि हुई है। ऐसा अभ्यास नवदीक्षित भक्त को राग भक्ति के पद तक पहुँचने में सहायक बन सकता है, जिसमें भगवान् चैत्यगुरु अर्थात् अतिचेतना स्वरूप गुरु के रूप में भीतर से उत्तर देते हैं। भक्तों के अतिरिक्त सारे अध्यात्मवादी व्यष्टि आत्मा तथा परमात्मा में कोई अन्तर नहीं करते, क्योंकि वे अतिचेतना तथा व्यष्टि चेतना को एक ही समझने की गलती करते हैं। अभक्तों द्वारा की गई ऐसी गलती उन्हें भीतर से कोई निर्देशन पाने के अयोग्य बनाती है, अत: वे भगवान् के प्रत्यक्ष सहयोग से वंचित रह जाते हैं। जब अनेकानेक जन्मों बाद ऐसे अद्वैतवादी होश में आते हैं कि भगवान् आराध्य हैं और भक्त भगवान् से एक होते हुए भी भिन्न हैं तभी वे भगवान् वासुदेव की शरण ग्रहण कर सकते हैं। शुद्ध भक्तियोग इस बिन्दु से प्रारम्भ होता है। दिग्भ्रांत अद्वैतवादी द्वारा परम सत्य को समझने के लिए अपनाई गई विधि अत्यन्त कठिन होती है, जबकि परम सत्य को समझने के लिए भक्ति की विधि प्रत्यक्ष रूप से भगवान् से आती है, क्योंकि वे भक्तिमय सेवा से प्रसन्न होते हैं। विदुर ने पहुँचते ही अनेक नवदीक्षित भक्तों की ओर से मैत्रेय से उस भक्तिमय सेवा मार्ग के विषय में पूछताछ की जिससे हृदय के भीतर आसीन भगवान् को प्रसन्न किया जा सके।

 
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