श्रीमद् भागवतम
 
हिंदी में पढ़े और सुनें
भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 5: मैत्रेय से विदुर की वार्ता  »  श्लोक 40
 
 
श्लोक  3.5.40 
धातर्यदस्मिन् भव ईश जीवा-
स्तापत्रयेणाभिहता न शर्म ।
आत्मन्लभन्ते भगवंस्तवाङ्‌घ्रि-
च्छायां सविद्यामत आश्रयेम ॥ ४० ॥
 
शब्दार्थ
धात:—हे पिता; यत्—क्योंकि; अस्मिन्—इस; भवे—संसार में; ईश—हे ईश्वर; जीवा:—जीव; ताप—कष्ट; त्रयेण—तीन; अभिहता:—सदैव; न—कभी नहीं; शर्म—सुख में; आत्मन्—आत्मा; लभन्ते—प्राप्त करते हैं; भगवन्—हे भगवान्; तव— तुम्हारे; अङ्घ्रि-छायाम्—चरणों की छाया; स-विद्याम्—ज्ञान से पूर्ण; अत:—प्राप्त करते हैं; आश्रयेम—शरण ।.
 
अनुवाद
 
 हे पिता, हे प्रभु, हे भगवान्, इस भौतिक संसार में जीवों को कभी कोई सुख प्राप्त नहीं हो सकता, क्योंकि वे तीन प्रकार के कष्टों से अभिभूत रहते हैं। अतएव वे आपके उन चरणकमलों की छाया की शरण ग्रहण करते हैं, जो ज्ञान से पूर्ण है और इस लिए हम भी उन्हीं की शरण लेते हैं।
 
तात्पर्य
 भक्ति-मय सेवा की विधि न तो भावनात्मक है न लौकिक। यह सत्य का मार्ग है, जिससे जीव तीन प्रकार के—दैहिक, दैविक तथा भौतिक—दुखों से छुटकारा पाने का दिव्य सुख प्राप्त कर सकता है। भौतिक जगत द्वारा बद्ध कोई भी जीव, चाहे वह मनुष्य हो, पशु हो, देवता हो या पक्षी, उसे आध्यात्मिक (शारीरिक या मानसिक), आधिभौतिक (जीवों द्वारा प्रदत्त) तथा आधिदैविक (दैवी उत्पातों के फलस्वरूप) कष्ट भोगने पड़ते है। उसका सुख बद्धजीवन के कष्टों से मुक्त होने के लिए कठिन संघर्ष के अतिरिक्त कुछ भी नहीं होता। किन्तु उसकी रक्षा का एक ही उपाय है और वह है पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् के चरणकमलों की शरण ग्रहण करना।

यह तर्क कि उचित ज्ञान प्राप्त किये बिना मनुष्य भौतिक कष्टों से मुक्त नहीं हो सकता, असंदिग्ध रूप से सत्य है। किन्तु भगवान् के चरणकमल दिव्य ज्ञान से पूर्ण होते है, अतएव उनके चरणकमलों को स्वीकार करने से उस आवश्यकता की पूर्ति हो जाती है। इसकी व्याख्या हम प्रथम स्कन्ध (१.२.७) में कर चुके हैं—

वासुदेवे भगवति भक्तियोग: प्रयोजित:।

जनयत्याशु वैराग्यं ज्ञानं च यदहैतुकम् ॥

भगवान् वासुदेव की भक्ति में ज्ञान का अभाव नहीं है। वे भक्त के हृदय में से अज्ञानरूपी अंधकार को दूर करने का भार अपने ऊपर ले लेते हैं। इसकी पुष्टि उन्होंने भगवद्गीता (१०.१०) में की है— तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम्।

ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते ॥

अनुभवजन्य दार्शनिक चिन्तन मनुष्य को भौतिक संसार के तीन कष्टों से छुटकारा नहीं दिला सकता। भगवान् की भक्ति में समर्षित हुए लगे बिना ज्ञान के लिए प्रयत्न करना मूल्यवान समय का अपव्यय है।

 
शेयर करें
       
 
  All glories to Srila Prabhupada. All glories to वैष्णव भक्त-वृंद
  Disclaimer: copyrights reserved to BBT India and BBT Intl.

 
About Us | Terms & Conditions
Privacy Policy | Refund Policy
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥