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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 5: मैत्रेय से विदुर की वार्ता  »  श्लोक 42
 
 
श्लोक  3.5.42 
यच्छ्रद्धया श्रुतवत्या य भक्त्या
संमृज्यमाने हृदयेऽवधाय ।
ज्ञानेन वैराग्यबलेन धीरा
व्रजेम तत्तेऽङ्‌घ्रिसरोजपीठम् ॥ ४२ ॥
 
शब्दार्थ
यत्—वह जो; श्रद्धया—उत्सुकता से; श्रुतवत्या—केवल सुनने से; —भी; भक्त्या—भक्ति से; सम्मृज्यमाने—धुलकर; हृदये—हृदय में; अवधाय—ध्यान; ज्ञानेन—ज्ञान से; वैराग्य—विरक्ति के; बलेन—बल से; धीरा:—शान्त; व्रजेम—जाना चाहिए; तत्—उस; ते—तुम्हारे; अङ्घ्रि—पाँव; सरोज-पीठम्—कमल पुण्यालय ।.
 
अनुवाद
 
 आपके चरणकमलों के विषय में केवल उत्सुकता तथा भक्ति पूर्वक श्रवण करने से तथा उनके विषय में हृदय में ध्यान करने से मनुष्य तुरन्त ही ज्ञान से प्रकाशित और वैराग्य के बल पर शान्त हो जाता है। अतएव हमें आपके चरणकमल रूपी पुण्यालय की शरण ग्रहण करनी चाहिए।
 
तात्पर्य
 उत्सुकता तथा भक्ति पूर्वक भगवान् के चरणकमलों का ध्यान करने के चमत्कार इतने महान् होते हैं कि कोई अन्य विधि इनकी बराबरी नहीं कर सकती। भौतिकतावादी जनों के मन इतने व्यग्र रहते हैं कि उनके लिए निजी नियमित प्रयासों द्वार परम सत्य की खोज कर सकना प्राय: असम्भव होता है। किन्तु ऐसे भौतिकतावादी जन भी, दिव्य नाम, यश, गुण इत्यादि के विषय में श्रवण के प्रति थोड़ी सी भी उत्सुकता से, ज्ञान तथा वैराग्य प्राप्त करने की अन्य सभी विधियों को मात कर सकते हैं। बद्धजीव देहात्मबुद्धि के प्रति लिप्त रहता है, अतएव वह अज्ञान में पड़ा रहता है। आत्म- ज्ञान का संवर्धन भौतिक अनुराग से वैराग्य उत्पन्न करा सकता है और ऐसे वैराग्य के बिना ज्ञान का कोई अर्थ नहीं होता। भौतिक भोग के लिए सबसे भयावह आसक्ति है यौन जीवन। यौन जीवन के प्रति आसक्त व्यक्ति को ज्ञान से विहीन समझना चाहिए। ज्ञान के पश्चात् वैराग्य होना ही चाहिए। आत्म-साक्षात्कार की यही विधि है। आत्म-साक्षात्कार के लिए ज्ञान तथा वैराग्य अनिवार्य हैं। और यदि कोई व्यक्ति भगवान् के चरणकमलों की भक्ति करता है, तो ये दोनों अनिवार्य तत्त्व तुरन्त प्रकट होते है। इस सन्दर्भ में धीर शब्द अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। जो व्यक्ति व्यग्रता का कारण उपस्थित होने पर भी विक्षुब्ध नहीं होता वह धीर कहलाता है। श्री यामुनाचार्य कहते हैं, “क्योंकि मेरा हृदय भगवान् कृष्ण की भक्ति से अभिभूत हो चुका है मैं यौन जीवन के विषय में सोच भी नहीं सकता और यदि यौन का विचार मेरे मन में आता भी है, तो मुझे तुरन्त घृणा होने लगती है।” भगवद्भक्त भगवान् के चरणकमलों का उत्सुकतापूर्वक ध्यान करने मात्र से उच्चस्थ धीर बन जाता है।

भक्ति में प्रामाणिक गुरु द्वारा दीक्षा का दिया जाना तथा भगवान् के विषय में सुनने के उसके उपदेशों का पालन करना निहित होता है। ऐसे प्रामाणिक गुरु को उससे नियमित रूप से भगवान् के विषय में सुनने के बाद स्वीकार किया जाता है। ज्ञान तथा वैराग्य में उन्नति को भक्तगण वास्तविक अनुभव के रूप में देखते हैं। श्री चैतन्य महाप्रभु ने प्रामाणिक भक्त से सुनने की इस विधि की जोरदार संस्तुति की और इस विधि का पालन करते हुए मनुष्य अन्य सारी विधियों पर विजय प्राप्त करते हुए सर्वोच्च परिणाम तक पहुँच सकता है।

 
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