हे प्रभु, जो लोग नश्वर शरीर तथा बन्धु-बाँधवों के प्रति अवांछित उत्सुकता के द्वारा पाशबद्ध हैं और जो लोग “मेरा” तथा “मैं” के विचारों से बँधे हुए हैं, वे आपके चरणकमलों का दर्शन नहीं कर पाते यद्यपि आपके चरणकमल उनके अपने ही शरीरों में स्थित होते हैं। किन्तु हम आपके चरणकमलों की शरण ग्रहण करें।
तात्पर्य
जीवन का सम्पूर्ण वैदिक दर्शन यही है कि स्थूल तथा सूक्ष्म शरीरों के भौतिक बन्धन से छुटकारा पाया जाय जिसके कारण मनुष्य कष्टमय गर्हित जीवन बिताता रहता है। यह भौतिक शरीर तब तक चलता जाता है जब तक मनुष्य भौतिक प्रकृति पर प्रभुत्व जताने की मिथ्या धारणा से विरत नहीं हो जाता। भौतिक प्रकृति पर प्रभुत्व जताने की यह प्रेरणा “मेरा” तथा “मैं” का बोध है। “मैं सारे विश्व का सर्वेसर्वा हूँ। मेरे पास बहुत सी वस्तुएँ हैं और मैं अधिकाधिक वस्तुओं का स्वामी बनूँगा। सम्पत्ति तथा शिक्षा के मामले में मुझसे बढक़र कौन हो सकता है? मैं स्वामी हूँ और मैं ईश्वर हूँ। मेरे अतिरिक्त और है ही कौन?” ये सारे विचार अहं मम दर्शन अर्थात् “मैं ही सब कुछ हूँ” को प्रतिबिम्बित करते हैं। ऐसी जीवनधारणा से संचालित व्यक्ति भव-बन्धन से कभी मुक्ति नहीं पा सकते। किन्तु यदि कोई केवल कृष्णकथा सुनने के लिए राजी हो सके तो संसार के कष्टों से निरन्तर तिरस्कृत व्यक्ति भी बन्धन से छुटकारा पा सकता है। इस कलियुग में कृष्णकथा सुनने की प्रक्रिया अवांछित पारिवारिक स्नेह से छुटकारा पाने और इस तरह जीवन में स्थायी स्वतंत्रता प्राप्त करने का सबसे प्रभावशाली साधन है। कलियुग पापपूर्ण कर्मफलों से ओत-प्रोत है और लोग इस युग के गुणों में अधिकाधिक लिप्त है, किन्तु कृष्णकथा के श्रवण तथा कीर्तन मात्र से मनुष्य का भगवद्धाम वापस जाना सुनिश्चित है। अतएव मनुष्यों को सभी तरह से एकमात्र कृष्णकथा सुनने के लिए प्रशिक्षित किया जाना चाहिए जिससे उन्हें सारे कष्टों से छुटकारा मिल सके।
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