श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 5: मैत्रेय से विदुर की वार्ता  »  श्लोक 45
 
 
श्लोक  3.5.45 
तान् वै ह्यसद्‌वृत्तिभिरक्षिभिर्ये
पराहृतान्तर्मनस: परेश ।
अथो न पश्यन्त्युरुगाय नूनं
ये ते पदन्यासविलासलक्ष्या: ॥ ४५ ॥
 
शब्दार्थ
तान्—भगवान् के चरणकमल; वै—निश्चय ही; हि—क्योंकि; असत्—भौतिकतावादी; वृत्तिभि:—बहिरंगा शक्ति से प्रभावित होने वालों के द्वारा; अक्षिभि:—इन्द्रियों द्वारा; ये—जो; पराहृत—दूरी पर खोये हुए; अन्त:-मनस:—आन्तरिक मन को; परेश—हे परम; अथो—इसलिए; न—कभी नहीं; पश्यन्ति—देख सकते है; उरुगाय—हे महान्; नूनम्—लेकिन; ये—जो; ते—तुम्हारे; पदन्यास—कार्यकलाप; विलास—दिव्य भोग; लक्ष्या:—देखने वाले ।.
 
अनुवाद
 
 हे महान् परमेश्वर, वे अपराधी व्यक्ति, जिनकी अन्त:दृष्टि बाह्य भौतिकतावादी कार्यकलापों से अत्यधिक प्रभावित हो चुकी होती है वे आपके चरणकमलों का दर्शन नहीं कर सकते, किन्तु आपके शुद्ध भक्त दर्शन कर पाते हैं, क्योंकि उनका एकमात्र उद्देश्य आपके कार्यकलापों का दिव्य भाव से आस्वादन करना है।
 
तात्पर्य
 जैसाकि भगवद्गीता (१८.६१) में कहा गया है, भगवान् हर एक के हृदय में स्थित हैं। यह स्वाभाविक है कि मनुष्य कम से कम अपने भीतर भगवान् का दर्शन कर सके। किन्तु जिन लोगों की अन्त:दृष्टि बाह्य कार्यकलापों से आच्छादित हो चुकी होती है उनके लिए यह सम्भव नहीं है। शुद्ध आत्मा, जिसका लक्षण चेतना है, एक सामान्य व्यक्ति द्वारा भी आसानी से अनुभव की जा सकती है, क्योंकि चेतना सारे शरीर में फैली हुई है। जैसाकि भगवद्गीता में संस्तुति की गई है, योग पद्धति मानसिक कार्यकलापों को भीतर में ही केन्द्रित करना है और इस तरह अपने अन्दर भगवान् के चरणकमलों का दर्शन करना है। किन्तु ऐसे अनेक तथाकथित योगी हैं जिनको भगवान् से कोई वास्ता नहीं रहता, अपितु वे केवल चेतना से ही मतलब रखते हैं, जिसे वे अन्तिम साक्षात्कार मान लेते हैं। चेतना का ऐसा साक्षात्कार भगवद्गीता द्वारा चुटकी बजाते सीखाया जा सकता है, जबकि तथाकथित योगियों को भगवान् के चरणकमलों पर अपने अपराध के कारण इसे पाने में वर्षों लग जाते हैं। सबसे बड़ा अपराध तो व्यष्टि आत्माओं से भगवान् के पृथक् अस्तित्व को नकारना है या भगवान् तथा व्यष्टि आत्मा को एक तथा अभिन्न मानना है। निर्विशेषवादी प्रतिबिम्ब के सिद्धान्त की गलत व्याख्या करते हैं और त्रुटिवश वे व्यष्टि चेतना को परम चतेना मान लेते हैं।

परम के प्रतिबिम्बवाद को कोई भी निष्ठावान सामान्यजन बिना किसी कठिनाई के स्पष्टत: समझ सकता है। जब जल में आकाश का प्रतिबिम्ब पड़ता है, तो जल के भीतर आकाश तथा तारे दोनों दिखते हैं, किन्तु आकाश तथा तारों को समान स्तर पर नहीं माना जाता। तारे तो आकाश के अंश है, अतएव उन्हें पूर्ण के समान नहीं माना जा सकता। आकाश पूर्ण है और तारे अंश हैं। वे एक हो ही नहीं सकते। जो अध्यात्मवादी (योगी) परम चेतना को व्यष्टि चेतना से पृथक् नहीं मानते वे उतने ही अपराधी हैं जितने कि भगवान् के अस्तित्व तक को ही नकारने वाले भौतिकतावादी।

वस्तुत: ऐसे अपराधीजन न तो अपने अन्त:करण में भगवान् के चरणकमलों को देख सकते हैं न ही वे भगवद्भक्तों को देख सकते हैं। भगवद्भक्त इतने दयालु होते हैं कि वे लोगों को ईशचेतना से अलोकित करने के लिए सभी स्थानों में घूमते रहते हैं, किन्तु अपराधीजन भगवद्भक्तों का स्वागत करने का अवसर खो बैठते हैं, यद्यपि अपराध-रहित सामान्य-जन भक्तों की उपस्थिति से तुरन्त ही प्रभावित हो जाते हैं। इस सन्दर्भ में एक शिकारी तथा देवर्षि नारद की एक रोचक कहानी है। एक जंगल में एक शिकारी रहता था, जो यद्यपि महान् पापी था, किन्तु वह जान-बूझकर अपराध नहीं किया करता था। वह नारद की उपस्थिति से तत्काल प्रभावित हुआ और अपना घर-बार छोडक़र भक्तिमार्ग स्वीकार करने को राजी हो गया। किन्तु नलकूवर तथा मणिग्रीव अपराधियों को देवताओं के बीच में रहते हुए भी अगले जन्म में वृक्ष बनने का दण्ड भोगना पड़ा, यद्यपि एक भक्त की कृपा से बाद में भगवान् ने उनका उद्धार कर दिया। अपराधियों को तब तक प्रतीक्षा करनी पड़ती है जब तक उन्हें भक्तों की कृपा प्राप्त न हो ले। तब वे अपने अन्त:करण में भगवान् के चरणकमलों का दर्शन करने के पात्र बन जाते हैं। किन्तु अपने अपराधों तथा अपनी नितान्त भौतिकवादिकता के कारण वे भगवद्भक्तों तक का दर्शन नहीं कर पाते। बाह्य कार्यों में व्यस्त रहने से वे अपनी अन्त:दृष्टि का हनन कर डालते हैं। फिर भी भगवद्भक्त उन मूर्खों के अपराधों पर ध्यान नहीं देते जो अनेक स्थूल तथा सूक्ष्म शारीरिक प्रयासों में लगे रहने के कारण होते रहते हैं। भगवद्भक्त ऐसे समस्त अपराधियों को बिना हिचक के भक्ति का आशीर्वाद देते रहते हैं। भक्तों का यही स्वभाव है।

 
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