श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 5: मैत्रेय से विदुर की वार्ता  »  श्लोक 46
 
 
श्लोक  3.5.46 
पानेन ते देव कथासुधाया:
प्रवृद्धभक्त्या विशदाशया ये ।
वैराग्यसारं प्रतिलभ्य बोधं
यथाञ्जसान्वीयुरकुण्ठधिष्ण्यम् ॥ ४६ ॥
 
शब्दार्थ
पानेन—पीने से; ते—आपके; देव—हे प्रभु; कथा—कथाएँ; सुधाया:—अमृत की; प्रवृद्ध—अत्यन्त प्रबुद्ध; भक्त्या—भक्ति द्वारा; विशद-आशया:—अत्यधिक गम्भीर विचार से युक्त; ये—जो; वैराग्य-सारम्—वैराग्य का सारा तात्पर्य; प्रतिलभ्य—प्राप्त करके; बोधम्—बुद्धि; यथा—जिस तरह; अञ्जसा—तुरन्त; अन्वीयु:—प्राप्त करते हैं; अकुण्ठ-धिष्ण्यम्—आध्यात्मिक आकाश में वैकुण्ठलोक ।.
 
अनुवाद
 
 हे प्रभु, जो लोग अपनी गम्भीर मनोवृत्ति के कारण प्रबुद्ध भक्ति-मय सेवा की अवस्था प्राप्त करते हैं, वे वैराग्य तथा ज्ञान के संपूर्ण अर्थ को समझ लेते हैं और आपकी कथाओं के अमृत को पीकर ही आध्यात्मिक आकाश में वैकुण्ठलोक को प्राप्त करते हैं।
 
तात्पर्य
 निर्विशेषवादी मानसिक चिन्तकों तथा भगवान् के शुद्ध भक्तों में जो अन्तर होता है, वह यही है कि निर्विशेषवादी प्रत्येक अवस्था पर परब्रह्म के कष्टसाध्य ज्ञान से होकर गुजरते हैं जबकि भक्तगण अपने प्रयास के आरम्भ से ही समस्त आनन्द के धाम में प्रवेश करते हैं। भक्त को भक्ति-मय कार्यकलापों के विषय में केवल श्रवण करना होता है, जो कि सामान्य जीवन के किसी भी कार्य की तरह सरल होता है। वह बहुत ही सरल ढंग से कार्य करता है, जबकि मानसिक चिन्तक को वाग्जाल से होकर गुजरना पड़ता है, जिसमें कुछ तथ्य रहते हैं और कुछ तो निर्विशेष अवस्था बनाये रखने के लिए दिखावा मात्र होते हैं। पूर्णज्ञान प्राप्त करने के लिए घोर प्रयासों के बावजूद, निर्विशेषवादी भगवान् की ब्रह्मज्योति के निर्विशेष तादात्म्य में लीन हो पाता है। इसे तो भगवान् के शत्रु भी उनके द्वारा मारे जाने पर सहज ही प्राप्त कर लेते हैं। किन्तु भक्तगण ज्ञान तथा वैराग्य की सर्वोच्च अवस्था प्राप्त करते हैं और वैकुण्ठ लोकों को जाते है, जो आध्यात्मिक आकाश के लोक हैं। निर्विशेषवादी को तो केवल आकाश प्राप्त होता है; उसे कोई वास्तविक दिव्य आनन्द नहीं प्राप्त होता जबकि भक्त उन लोकों को प्राप्त होता है जहाँ असली आध्यात्मिक जीवन होता है। गम्भीर मनोवृत्ति से युक्त भक्त सारी उपलब्धियों को धूल की तरह झाड़ देता है और एकमात्र भक्ति को स्वीकार करता है, जो दिव्य परिणति है।
 
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हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥