तथा—जहाँ तक; अपरे—अन्य; च—भी; आत्म-समाधि—दिव्य आत्म-साक्षात्कार; योग—साधन; बलेन—के बल पर; जित्वा—जीतकर; प्रकृतिम्—अर्जित स्वभाव या गुण; बलिष्ठाम्—अत्यन्त बलवान; त्वाम्—तुमको; एव—एकमात्र; धीरा:— शान्त; पुरुषम्—व्यक्ति को; विशन्ति—प्रवेश करते हैं; तेषाम्—उनके लिए; श्रम:—अत्यधिक परिश्रम; स्यात्—करना होता है; न—कभी नहीं; तु—लेकिन; सेवया—सेवा द्वारा; ते—तुम्हारी ।.
अनुवाद
अन्य लोग भी जो कि दिव्य आत्म-साक्षात्कार द्वारा शान्त हो जाते हैं तथा जिन्होंने प्रबल शक्ति एवं ज्ञान के द्वारा प्रकृति के गुणों पर विजय पा ली है, आप में प्रवेश करते हैं, किन्तु उन्हें काफी कष्ट उठाना पड़ता है, जबकि भक्त केवल भक्ति-मय सेवा सम्पन्न करता है और उसे ऐसा कोई कष्ट नहीं होता।
तात्पर्य
प्रेम के श्रम तथा उससे मिलने वाले लाभों की दृष्टि से भक्तगण सदैव उन लोगों से आगे रहते हैं, जो ज्ञानियों या निर्विशेषवादियों तथा योगियों की संगति के पीछे बावले रहते हैं। अपरे (अन्यों) शब्द इस सन्दर्भ में अत्यन्त सार्थक है। यह शब्द उन ज्ञानियों तथा योगियों का द्योतक है जिनकी एकमात्र आशा निर्विशेष ब्रह्मज्योति में तदाकार होने की रहती है। यद्यपि उनका गन्तव्य भक्तों के गन्तव्य की तुलना में अधिक महत्त्वपूर्ण नहीं होता, किन्तु अभक्तों को भक्तों की अपेक्षा अत्यधिक श्रम करना पड़ता है। कोई यह सुझाव रख सकता है कि भक्ति-मय सेवा सम्पन्न करने में भक्तों को भी पर्याप्त श्रम करना होता है। किन्तु इस श्रम की क्षति-पूर्ति दिव्य आनन्द की वृद्धि से हो जाती है। भक्तों को भगवान् की सेवा में निरन्तर लगे रहने से व्यस्त न रहने की अपेक्षा अधिक आनन्द मिलता है। पुरुष तथा स्त्री के पारिवारिक संयोग में दोनों ही के लिए अधिक श्रम तथा उत्तरदायित्व रहता है; फिर भी जब वे अकेले होते हैं, तो संयुक्त कार्यकलापों के अभाव में उन्हें अधिक झंझट प्रतीत होता है।
निर्विशेषवादियों का मिलन तथा भक्तों का मिलन समान स्तर का नहीं होता। निर्विशेषवादी सायुज्य-मुक्ति प्राप्त करके अपनी वैयक्तिकता पूरी तरह समाप्त करने का प्रयास करते हैं जबकि भक्तगण परम पुरुष भगवान् के साथ अपनी भावनाओं का आदान-प्रदान बनाये रखने के लिए अपनी वैयक्तिकता बनाये रखते हैं। इस तरह भावों का आदान-प्रदान दिव्य वैकुण्ठलोकों में होता है, अतएव जिस मुक्ति की तलाश निर्विशेषवादी करते हैं वह भक्ति में पहले ही प्राप्त हो चुकी होती है। भक्तगण अपनी वैयक्तिकता बनाये रख कर दिव्य आनन्द प्राप्त करते हुए स्वयमेव मुक्ति पाते हैं। जैसाकि पिछले श्लोक में बताया जा चुका है, भक्तों का गन्तव्य वैकुण्ठ या अकुण्ठ-धिष्ण्य होता है—वह स्थान जहाँ चिन्ताएँ समूल नष्ट हो जाती हैं। किसी को भक्तों के गन्तव्य तथा निर्विशेषवादियों के गन्तव्य को एक समान मानने की भूल नहीं करनी चाहिए। दोनों के गन्तव्य स्पष्टत: पृथक्-पृथक् है और भक्त द्वारा प्राप्त होने वाला दिव्य आनन्द भी चिन्मात्रा या केवल आध्यात्मिक भावनाओं से भिन्न होता है।
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