हे अजन्मा, आप हमें वे मार्ग तथा साधन बतायें जिनके द्वारा हम आपको समस्त भोग्य अन्न तथा वस्तुएँ अर्पित कर सकें जिससे हम तथा इस जगत के अन्य समस्त जीव बिना किसी उत्पात के अपना पालन-पोषण कर सकें तथा आपके लिए और अपने लिए आवश्यक वस्तुओं का संग्रह कर सकें।
तात्पर्य
विकसित चेतना मनुष्य जीवन से प्रारम्भ होती है, जो उच्चतर लोकों में निवास करने वाले देवताओं में और भी बढ़ जाती है। यह पृथ्वी ब्रह्माण्ड के लगभग बीचोंबींच स्थित है और मनुष्य जीवन देवताओं तथा असुरों के जीवन के बीच का माध्यम है। पृथ्वी के ऊपर के लोक विशेष रूप से उच्चतर बौद्धिकों अर्थात् देवताओं के निमित्त हैं। वे देवता इसलिए कहलाते हैं, क्योंकि अपने जीवन स्तर में संस्कृति, भोग, विलास, सौन्दर्य, शिक्षा तथा आयु के दृष्टिकोण से अत्यधिक बढ़े-चढ़े होते हुए भी, वे पूर्णतया ईशभावनाभावित होते हैं। ऐसे देवता सदैव भगवान् की सेवा करने के लिए तत्पर रहते हैं, क्योंकि वे भलीभाँति इस तथ्य को जानते हैं कि हर जीव स्वाभाविक तौर पर भगवान् का नित्य अधीनस्थ सेवक है। वे यह भी जानते हैं कि एकमात्र भगवान् ही सारे जीवों की जीवन-आवश्यकताएँ पूरी करके उनका पालन करते हैं। इस सत्य की पुष्टि इस वैदिक सूत्र से होती है—एको बहूनां यो विदधाति कामान्, ता एनमब्रुवन्नायतनं न: प्रजानीहि यस्मिन् प्रतिष्ठिता अन्नमदामे इत्यादि। भगवद्गीता में भी भगवान् को भूत-भृत अर्थात् सारे जीवों का पालन करने वाला कहा गया है।
यह आधुनिक सिद्धान्त है कि भुखमरी का कारण जनसंख्या में वृद्धि है, जो देवताओं या भगवद्भक्तों को स्वीकार्य नहीं है। भक्त या देवतागण इस बात से पूर्णतया अवगत हैं कि भगवान् कितने भी जीवों का पालन कर सकते हैं बशर्ते कि वे इसका ध्यान रखें कि किस तरह भोजन किया जाय। यदि वे सामान्य पशुओं की तरह भोजन करना चाहते हैं जिनमें ईश-चेतना नहीं होती तो उन्हें जंगल में रहनेवाले पशुओं की तरह भुखमरी, दरिद्रता तथा अभाव में जीवन बिताना होगा। जंगल के पशुओं का भी पालन भगवान् उनकी रुचियों का भोजन प्रदान करके करते हैं, किन्तु वे ईश-चेतना में बढ़े-चढ़े नहीं होते। इसी तरह भगवान् की कृपा से मनुष्यों को अन्न, शाक, फल तथा दूध उपलब्ध है, अत: मनुष्य का यह धर्म है कि वह भगवत्कृपा को स्वीकार करे। कृतज्ञता के रूप में भोज्य वस्तुओं की पूर्ति के लिए उन्हें भगवान् के प्रति आभारी होना चाहिए। उन्हें चाहिए कि यज्ञ में सर्वप्रथम वे भगवान् को भोजन अर्पित करके जो उच्छिष्ट बचे, उसे ही खाएँ।
भगवद्गीता (३.१३) में इसकी पुष्टि की गई है कि जो व्यक्ति यज्ञ सम्पन्न करने के बाद भोजन ग्रहण करता है, वह शरीर तथा आत्मा के समुचित पालन-पोषण हेतु असली भोजन करता है। किन्तु जो व्यक्ति अपने लिए भोजन बनाता है और कोई यज्ञ नहीं करता, वह भोजन के रूप में पाप के ग्रास ही खाता है। ऐसा पापमय भोजन किसी को सुखी या अभाव से मुक्त नहीं बना सकता। अकाल या दुर्भिक्ष जनसंख्या वृद्धि के फलस्वरूप नहीं होता, जैसाकि अल्पज्ञ अर्थशास्त्री सोचते हैं। जब मानव समाज जीवों के पालन हेतु भगवान् द्वारा दिए गए उपहारों के प्रति कृतज्ञ रहता है तब समाज में किसी तरह का अभाव नहीं रह पाता। किन्तु जब लोग भगवान् के ऐसे उपहारों का आन्तरिक मूल्य नहीं समझते तो उन्हें निश्चय ही अभाव रहता है। जो व्यक्ति ईशभावनाभावित नहीं हैं, भले ही वह अपने विगत पुण्यकर्मों के फलस्वरूप सम्प्रति ऐश्वर्यमय जीवन बिता ले, किन्तु यदि वह ईश्वर के साथ अपने सम्बन्ध को भुला देता है, तो उसे शक्तिशाली भौतिक प्रकृति के नियमों द्वारा, निश्चय ही, भुखमरी का सामना करना पड़ेगा। ईशभावनाभावित हुए बिना अथवा भक्तिमय जीवन के बिना मनुष्य शक्तिशाली भौतिक प्रकृति की दृष्टि से बचकर निकल नहीं सकता।
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