श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 5: मैत्रेय से विदुर की वार्ता  »  श्लोक 5
 
 
श्लोक  3.5.5 
करोति कर्माणि कृतावतारो
यान्यात्मतन्त्रो भगवांस्त्र्यधीश: ।
यथा ससर्जाग्र इदं निरीह:
संस्थाप्य वृत्तिं जगतो विधत्ते ॥ ५ ॥
 
शब्दार्थ
करोति—करता है; कर्माणि—दिव्य कर्म; कृत—स्वीकार करके; अवतार:—अवतार; यानि—वे सब; आत्म-तन्त्र:—स्वतंत्र; भगवान्—भगवान्; त्रि-अधीश:—तीनों लोकों के स्वामी; यथा—जिस तरह; ससर्ज—उत्पन्न किया; अग्रे—सर्वप्रथम; इदम्— इस विराट जगत को; निरीह:—यद्यपि इच्छारहित; संस्थाप्य—स्थापित करके; वृत्तिम्—जीविकोपार्जन का साधन; जगत:— ब्रह्माण्डों का; विधत्ते—जिस तरह वह नियमन करता है ।.
 
अनुवाद
 
 हे महर्षि, कृपा करके बतलाएँ कि पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् जो तीनों लोकों के इच्छारहित स्वतंत्र स्वामी तथा समस्त शक्तियों के नियन्ता हैं, किस तरह अवतारों को स्वीकार करते हैं और किस तरह विराट जगत को उत्पन्न करते हैं, जिसके परिपालन के लिए नियामक सिद्धान्त पूर्ण रुप से व्यवस्थित हैं।
 
तात्पर्य
 भगवान् कृष्ण आदि भगवान् हैं जिनसे कारणार्णवशायी विष्णु, गर्भोदकशायी विष्णु तथा क्षीरोदकशायी विष्णु—ये तीनों पुरुष-अवतार विस्तार पाते हैं। सम्पूर्ण भौतिक सृष्टि भगवान् की बहिरंगा शक्ति के अन्तर्गत तीन पुरुषों द्वारा क्रमश: तीन अवस्थाओं में संचालित होती है और इस तरह भौतिक प्रकृति उन्हीं के द्वारा नियंत्रित होती है। भौतिक प्रकृति को स्वतंत्र मानना वैसा ही है जैसे कि बकरी के गलस्तनों में दूध की खोज करना। भगवान् स्वतंत्र हैं और इच्छारहित हैं। वे भौतिक जगत की सृष्टि अपनी तुष्टि के लिए नहीं करते जिस तरह हम अपनी भौतिक इच्छाओं की पूर्ति के लिए घरेलू कामकाज की सृष्टि करते हैं। वस्तुत:, भौतिक जगत उन बद्धजीवों के मोहमय भोग के लिए उत्पन्न किया जाता है, जो अनादि काल से भगवान् की दिव्य सेवा के विरुद्ध रहते आये हैं। किन्तु भौतिक ब्रह्माण्ड अपने में परिपूर्ण है। भौतिक जगत में भरण-पोषण का कोई अभाव नहीं है। अल्पज्ञान के कारण भौतिकतावादी जन पृथ्वी पर जनसंख्या की दिखावटी वृद्धि होने पर विचलित हो उठते हैं। किन्तु जब भी पृथ्वी पर कोई जीव आता है भगवान् तुरन्त ही उसके जीवन-निर्वाह की व्यवस्था करते हैं। अन्य योनियाँ, जिनकी संख्या मानव समाज से कहीं अधिक है, भरणपोषण के लिए कभी चिन्तित नहीं होतीं। वे कभी भी भूख से मरती नहीं देखी जातीं। यह तो एकमात्र मानव समाज है, जो खाद्य स्थिति के विषय में चिन्तित रहता है और प्रशासनिक कुव्यवस्था को छिपाने के लिए यह दलील दी जाती है कि जनसंख्या अत्यधिक गति से बढ़ रही है। यदि संसार में कोई अभाव है, तो वह ईश-चेतना का अभाव है अन्यथा भगवत्कृपा से अभाव किसी वस्तु का नहीं है।
 
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हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥