श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 5: मैत्रेय से विदुर की वार्ता  »  श्लोक 50
 
 
श्लोक  3.5.50 
त्वं न: सुराणामसि सान्वयानां
कूटस्थ आद्य: पुरुष: पुराण: ।
त्वं देव शक्त्यां गुणकर्मयोनौ
रेतस्त्वजायां कविमादधेऽज: ॥ ५० ॥
 
शब्दार्थ
त्वम्—आप; न:—हम; सुराणाम्—देवताओं के; असि—हो; स-अन्वयानाम्—विभिन्न कोटियों समेत; कूट-स्थ:— अपरिवर्तित; आद्य:—बिना किसी श्रेष्ठ के अद्वितीय; पुरुष:—संस्थापक व्यक्ति; पुराण:—सबसे प्राचीन, जिस का कोई और संस्थापक न हो; त्वम्—आप; देव—हे भगवान्; शक्त्याम्—शक्ति के प्रति; गुण-कर्म-योनौ—भौतिक गुणों तथा कर्मों के कारण के प्रति; रेत:—जन्म का वीर्य; तु—निस्सन्देह; अजायाम्—उत्पन्न करने के लिए; कविम्—सारे जीव; आदधे—आरम्भ किया; अज:—अजन्मा ।.
 
अनुवाद
 
 आप समस्त देवताओं तथा उनकी विभिन्न कोटियों के आदि साकार संस्थापक हैं फिर भी आप सबसे प्राचीन हैं और अपरिवर्तित रहते हैें। हे प्रभु, आपका न तो कोई उद्गम है, न ही कोई आपसे श्रेष्ठ है। आपने समस्त जीव रूपी वीर्य द्वारा बहिरंगा शक्ति को गर्भित किया है, फिर भी आप स्वयं अजन्मा हैं।
 
तात्पर्य
 आदि पुरुष भगवान्, ब्रह्मा से ले कर अन्य सारे जीवों के पिता हैं। ब्रह्मा से ही विभिन्न योनियों में अन्य सभी जीव उत्पन्न हुए हैं। फिर भी परम पिता का कोई पिता नहीं है। सभी श्रेणियों का प्रत्येक जीव, यहाँ तक कि ब्रह्माण्ड के आदि जीव ब्रह्मा तक, किसी पिता से उत्पन्न हैं, किन्तु भगवान् का कोई पिता नहीं है। जब वे अपनी अहैतुकी कृपा से इस भौतिक जगत में अवतरित होते हैं, तो वे भौतिक जगत के नियमों के अनुसार अपने किसी महान् भक्त को अपना पिता स्वीकारते हैं। चूँकि वे ही स्वामी हैं इस कारण अपने पिता का चुनाव करने के लिए वे सदैव स्वतंत्र होते हैं। उदाहरणार्थ, नृसिंह देव के अवतार में वे एक ख भे से प्रकट हो गये और भगवान् श्रीराम के अपने अवतार में उनके चरणकमलों के स्पर्श से पत्थर से अहल्या प्रकट हो गई। वे परमात्मा रूप में प्रत्येक व्यक्ति के संगी भी हैं, किन्तु वे अपरिवर्तित रहते हैं। भौतिक जगत में जीव अपना शरीर बदलता रहता है, किन्तु भगवान् इस जगत में होते हैं, तो भी सदा अपरिवर्तित ही रहते हैं। यही उनका विशेषाधिकार है।

जैसाकि भगवद्गीता (१४.३) में पुष्टि हुई है, भगवान् बहिरंगा या भौतिक शक्ति को गर्भित करते हैं और इस तरह बाद में विभिन्न कोटियों के रूप में, प्रथमदेव ब्रह्मा से लेकर तुच्छ चींटी तक, सारे जीव उत्पन्न होते हैं। जीवों की समस्त कोटियाँ ब्रह्मा तथा बहिरंगा शक्ति द्वारा उत्पन्न की जाती हैं, किन्तु भगवान् हर एक के आदि पिता हैं। भगवान् के साथ प्रत्येक जीव का सम्बन्ध पुत्र-पिता के रूप में होता है, सम-स्तर का नहीं। कभी-कभी प्रेम में पुत्र पिता से बढक़र होता है, किन्तु पिता तथा पुत्र का सम्बन्ध श्रेष्ठ तथा अधीनस्थ का होता है। प्रत्येक जीव, चाहे वह कितना ही बड़ा क्यों न हो, यहाँ तक कि ब्रह्मा तथा इन्द्र जैसे देवता क्यों न हों, परम पिता का नित्य अधीनस्थ सेवक होता है। महत् तत्त्व सिद्धान्त प्रकृति के सारे गुणों का जनक-स्रोत है। सारे जीव भौतिक प्रकृति माता द्वारा प्रदत्त शरीरों के साथ भौतिक जगत में अपने पूर्व कर्म के अनुसार जन्म लेते हैं। यह शरीर भौतिक प्रकृति का उपहार है, किन्तु आत्मा मूलत: परमेश्वर का अंश होता है।

 
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