श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 5: मैत्रेय से विदुर की वार्ता  »  श्लोक 51
 
 
श्लोक  3.5.51 
ततो वयं मत्प्रमुखा यदर्थे
बभूविमात्मन् करवाम किं ते ।
त्वं न: स्वचक्षु: परिदेहि शक्त्या
देव क्रियार्थे यदनुग्रहाणाम् ॥ ५१ ॥
 
शब्दार्थ
तत:—अत:; वयम्—हम सभी; मत्-प्रमुखा:—महतत्त्व से उत्पन्न; यत्-अर्थे—जिस कार्य के लिए; बभूविम—उत्पन्न किया; आत्मन्—हे परम आत्मा; करवाम—करेंगे; किम्—क्या; ते—आपकी सेवा; त्वम्—आप स्वयं; न:—हम को; स्व-चक्षु:— निजी योजना; परिदेहि—विशेष रूप से प्रदान करें; शक्त्या—कार्य करने की शक्ति से; देव—हे प्रभु; क्रिया-अर्थे—कार्य करने के लिए; यत्—जिससे; अनुग्रहाणाम्—विशेष रूप से कृपा प्राप्त लोगों का ।.
 
अनुवाद
 
 हे परम प्रभु, महत्-तत्त्व से प्रारम्भ में उत्पन्न हुए हम सबों को अपना कृपापूर्ण निर्देश दें कि हम किस तरह से कर्म करें। कृपया हमें अपना पूर्ण ज्ञान तथा शक्ति प्रदान करें जिससे हम परवर्ती सृष्टि के विभिन्न विभागों में आपकी सेवा कर सकें।
 
तात्पर्य
 भगवान् इस भौतिक जगत की सृष्टि करते हैं और भौतिक शक्ति (प्रकृति) को जीवों से गर्भित करते हैं, जिन्हें भौतिक जगत में कर्म करना है। इन सारे कर्मों के पीछे एक दैवी योजना रहती है। यह योजना है उन बद्धजीवों को इन्द्रियतृप्ति का भोग करने का अवसर प्रदान करना जो उसका भोग करना चाहते हैं। किन्तु सृष्टि के पीछे एक दूसरी योजना होती है। यह है जीवों को यह अनुभव करने में सहायता प्रदान करना कि वे भगवान् की दिव्य इन्द्रियतृप्ति के लिए उत्पन्न किये गये हैं। जीवों की यही स्वाभाविक स्थिति है। भगवान् अद्वय हैं और वे अपने दिव्य आनन्द के लिए अनेक रूपों में विस्तार करते हैं। विष्णु तत्त्व, जीव तत्त्व तथा शक्ति तत्त्व (भगवान के पुरुषोत्तम-रुप, जीवात्माएँ तथा विभिन्न शक्ति रुपी तत्त्व)—ये सारे विस्तार या अंश एक ही परमेश्वर की विभिन्न प्रशाखाएँ हैं। जीव तत्त्व विष्णुतत्त्व के विच्छिन्न विभिन्नांश है जिनमें सशक्त अन्तर होते हैं फिर भी वे सब परमेश्वर की दिव्य इन्द्रियतृप्ति के निमित्त हैं। किन्तु कुछ जीव भगवान् के प्रभुत्व की नकल में भौतिक प्रकृति पर प्रभुत्व जताना चाहते हैं। शुद्ध जीवों पर ऐसी मनोवृत्तियों ने किस तरह और कब अपना प्रभुत्व जमाया इसकी विवेचना इस तथ्य से की जा सकती है कि जीव तत्त्वों को अत्यल्प स्वतंत्रता प्राप्त है और इस स्वतंत्रता का दुरुपयोग करके कुछ जीव विराट जगत में फँस गये हैं, अत: वे नित्यबद्ध कहलाते हैं।

वैदिक ज्ञान का विस्तार भी नित्यबद्धों को सुधरने का अवसर प्रदान करता है और जो लोग ऐसे दिव्य ज्ञान का लाभ उठाते हैं, वे भगवान् की दिव्य सेवा करने की लुप्त चेतना को धीरे-धीरे पुन: प्राप्त कर लेते हैं। देवतागण बद्धात्माएँ ही हैं, जिन्होंने भगवान् के प्रति इस शुद्ध चेतना की सेवा को विकसित कर रखा है, किन्तु साथ ही साथ वे भौतिक शक्ति पर अपना प्रभुत्व जताना चाहते रहते हैं।

ऐसी मिश्रित चेतना बद्धजीव को इस सृष्टि के मामलों को व्यवस्थित करने की स्थिति तक पहुँचाती है। देवतागण बद्धजीवों के विश्वस्त नेता है। जिस तरह सरकारी कारागारों के कुछ पुराने बन्दियों को कारागार के प्रबन्ध का उत्तरदायित्वपूर्ण कार्य सौंप दिया जाता है उसी तरह देवतागण सुधरे हुए बद्धजीव हैं, जो भौतिक सृष्टि में भगवान् के प्रतिनिधियों के रूप में कार्य करते हैं। ऐसे देवता-गण भौतिक जगत में भगवान् के भक्त होते हैं और जब वे संसार पर प्रभुत्व जताने की सम्पूर्ण भौतिक इच्छाओं से पूरी तरह मुक्त हो जाते हैं, तो वे शुद्ध भक्त बन जाते हैं और उनमें भगवान् की सेवा करने के अतिरिक्त कोई अन्य इच्छा नहीं रह जाती। इसलिए जो भी जीव भौतिक जगत में कोई पद चाहता है, वह भगवान् की सेवा में ऐसी इच्छा प्रकट कर सकता है और ईश्वर से शक्ति तथा बुद्धि माँग सकता है जैसाकि इस विशिष्ट श्लोक में देवताओं के उदाहरण से स्पष्ट है। भगवान् से आलोक तथा शक्ति प्राप्त किये बिना कोई कुछ भी नहीं कर सकता। भगवद्गीता (१५.१५) में भगवान् कहते है मत्त: स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च। सारी स्मृति, सारा ज्ञान तथा सारी विस्मृति उन भगवान् द्वारा अभियंत्रित होती है, जो प्रत्येक व्यक्ति के हृदय में आसीन हैं। बुद्धिमान मनुष्य भगवान् से सहायता माँगता है और भगवान् अपनी नानाविध सेवाओं में लगे निष्ठावान् भक्तों की सहायता करते हैं।

भगवान् ने देवताओं को जीवों के विगत कर्मों के अनुसार विभिन्न योनियों में उत्पन्न करने का कार्यभार सौंप रखा है। वे यहाँ पर भगवान् से अपने-अपने कार्यों को पूरा करने के लिए बुद्धि तथा शक्ति की याचना कर रहे हैं। इसी तरह कोई भी बद्धात्मा दक्ष गुरु के निर्देशन में भगवान् की सेवा में प्रवृत्त हो सकता है और क्रमश: भवबन्धन से मुक्त हो सकता है। गुरु भगवान् का प्रकट प्रतिनिधि होता है और जो कोई भी अपने को गुरु के निर्देशन में रहकर तदनुसार कार्य करता है, वह बुद्धियोग के अनुसार कार्य करता हुआ माना जाता है जैसाकि भगवद्गीता (२.४१) में बतलाया गया है—

व्यवसायात्मिका बुद्धिरेकेह कुरुनन्दन।

बहुशाखा ह्यनन्ताश्च बुद्धयोऽव्यवसायिनाम् ॥

 
इस प्रकार श्रीमद्भागवत के तृतीय स्कंन्ध के अन्तर्गत “मैत्रेय से विदुर की वार्ता” नामक पाँचवें अध्याय के भक्तिवेदान्त तात्पर्य पूर्ण हुए।
 
 
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