यथा पुन: स्वे ख इदं निवेश्य
शेते गुहायां स निवृत्तवृत्ति: ।
योगेश्वराधीश्वर एक एत-
दनुप्रविष्टो बहुधा यथासीत् ॥ ६ ॥
शब्दार्थ
यथा—जिस तरह; पुन:—फिर; स्वे—अपने में; खे—आकाश के रूप (विराट रूप) में; इदम्—यह; निवेश्य—प्रविष्ट होकर; शेते—शयन करता है; गुहायाम्—ब्रह्माण्ड के भीतर; स:—वह (भगवान्); निवृत्त—बिना प्रयास के; वृत्ति:—आजीविका का साधन; योग-ईश्वर—समस्त योगशक्तियों के स्वामी; अधीश्वर:—सभी वस्तुओं के स्वामी; एक:—अद्वितीय; एतत्—यह; अनुप्रविष्ट:—बाद में प्रविष्ट होकर; बहुधा—असंख्य प्रकारों से; यथा—जिस तरह; आसीत्—विद्यमान रहता है ।.
अनुवाद
वे आकाश के रूप में फैले अपने ही हृदय में लेट जाते हैं और उस आकाश में सम्पूर्ण सृष्टि को रखकर वे अपना विस्तार अनेक जीवों में करते हैं, जो विभिन्न योनियों के रूप में प्रकट होते हैं। उन्हें अपने निर्वाह के लिए कोई प्रयास नहीं करना पड़ता क्योंकि वे समस्त यौगिक शक्तियों के स्वामी और प्रत्येक वस्तु के मालिक है। इस प्रकार वे जीवों से भिन्न है।
तात्पर्य
सृष्टि, पालन तथा संहार विषयक प्रश्न, जिनका उल्लेख श्रीमद्भागवत के अनेक भागों में हुआ है, विभिन्न कल्पों से सम्बन्ध रखते हैं; अतएव विभिन्न जिज्ञासुओं द्वारा प्रश्न पूछे जाने पर विभिन्न अधिकारियों द्वारा उनका वर्णन भिन्न-भिन्न रूपों में हुआ है। सृजन के सिद्धान्तों तथा उन पर भगवान् के नियंत्रण के विषय में कोई मतभेद नहीं है, किन्तु विभिन्न कल्पों में होने से उनकी बारीकियों में यत्किंचित अन्तर रहता है। विराट आकाश भगवान् का भौतिक शरीर है, जो विराट रूप कहलाता है और समस्त भौतिक सृष्टियाँ आकाश में अर्थात् भगवान् के हृदय में टिकी हुई है। अतएव आकाश से लेकर जो स्थूल दृष्टि के लिए सर्वप्रथम भौतिक अभिव्यक्ति है, पृथ्वी तक हर वस्तु ब्रह्म कहलाती है। सर्वं खल्विदं ब्रह्म—भगवान् के अतिरिक्त अन्य कुछ नहीं है और वे अद्वय है—जीव परा शक्ति है, जबकि पदार्थ अपरा शक्ति है और इन दोनों शक्तियों के मेल से इस भौतिक जगत की अभिव्यक्ति होती है, जो भगवान् के हृदय में स्थित है।
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