भगवान् इस ब्रह्माण्ड में विभिन्न अवतारों के रूप में, यथा मत्स्य, कूर्म, वराह तथा नृसिंह रूपों में प्रकट होते हैं और द्विजों, गौवों तथा देवताओं के कल्याण हेतु विविध दिव्य कार्यों को प्रदर्शित करते हैं। भगवान् द्विजों अर्थात् सभ्य पुरुषों की प्रत्यक्ष रूप से चिन्ता करते हैं। सभ्य व्यक्ति वह है, जिसने दो बार जन्म लिया हो। जीव इस संसार में नर तथा मादा के संसर्ग से जन्म लेता है। मनुष्य माता-पिता की संयुक्ति से उत्पन्न होता है, किन्तु सभ्य मनुष्य का दूसरा जन्म गुरु के सम्पर्क से होता है, जो वास्तविक पिता बनता है। भौतिक देह प्रदान करने वाले माता-पिता केवल एक जन्म के लिए ही माता-पिता हैं, किन्तु अगले जन्म में, माता-पिता अन्य जोड़ा हो सकता है। किन्तु प्रामाणिक गुरु तो भगवान् के प्रतिनिधि के रूप में नित्य पिता होता है, क्योंकि उस पर शिष्य को आध्यात्मिक मोक्ष या जीवन के चरम लक्ष्य तक पहुँचाने का उत्तरदायित्व रहता है। इसलिए सभ्य व्यक्ति को द्विजन्मा होना ही चाहिए, अन्यथा वह निचले दर्जे के पशुओं जैसा ही है। मनुष्य शरीर को पूर्णता प्रदान करने के लिए गाय सबसे महत्त्वपूर्ण पशु है। शरीर का पालनपोषण किसी भी तरह के भोज्यपदार्थ से किया जा सकता है, किन्तु मनुष्य के मस्तिष्क के सूक्ष्मतर कोशिकाओं के विकास के लिए गाय का दूध विशेषरूप से आवश्यक होता है, जिससे मनुष्य दिव्य ज्ञान की पेचीदगियों को समझ सके। किसी सभ्य मनुष्य से अपेक्षा की जाती है कि वह फल, शाक, अन्न, चीनी तथा दूध से युक्त भोज्य पदार्थों पर जीवन-निर्वाह करे। बैल अन्न इत्यादि उत्पन्न करने की कृषि प्रक्रिया में सहायता करता है। एक तरह से बैल मानव जाति का पिता है, जबकि गाय माता है क्योंकि वह मानव समाज को दुग्ध प्रदान करती है। अतएव किसी सभ्य मनुष्य से अपेक्षा की जाती है कि वह बैलों तथा गौवों को सभी प्रकार का संरक्षण प्रदान करे।
उच्चतर लोकों में रहने वाले देवतागण अथवा जीवात्माएँ मनुष्यों से कहीं अधिक श्रेष्ठ है। क्योंकि उनके जीवन-की स्थितियाँ बेहतर ढंग से व्यवस्थित होती है, अत: वे मनुष्यों की अपेक्षा कहीं अधिक विलासिता में रहते हैं। इतना होते हुए भी वे सब भगवद्भक्त होते हैं। भगवान् सभ्य मनुष्यों, गौओं तथा देवताओं को, जो आत्म-साक्षात्कार के निमित्त नियमित जीवन के लिए सीधे उत्तरदायी होते हैं, सुरक्षा प्रदान करने हेतु विविध रूपों में अवतरित होते हैं, जैसे मत्स्य, कूर्म, वराह तथा नृसिंह रूप। भौतिक सृष्टि की संपूर्ण प्रणाली योजना-बद्ध है ताकि बद्धजीवों को आत्म-साक्षात्कार के लिए अवसर मिल सके। जो कोई इस व्यवस्था का लाभ उठाता है, देवता अथवा सभ्य पुरुष कहलाता है। गौधन जीवन के ऐसे उच्चस्तर को बनाए रखने में सहायता के निमित्त है।
द्विजन्मा सभ्य मनुष्यों, गौवों तथा देवताओं की रक्षा के लिए भगवान् की लीलाएँ दिव्य होती है। मनुष्य में अच्छी कथा-कहानियाँ सुनने की प्रवृत्ति होती है, अतएव विकसित आत्मा की रुचियों की तुष्टि हेतु बाजार में अनेकानेक पुस्तकें, पत्रिकाएँ तथा समाचारपत्र हैं। किन्तु एक बार पढ़ लेने के बाद ऐसे साहित्य का आनन्द बासी पड़ जाता है और ऐसे साहित्य को बारम्बार पढऩे में लोगों की रुचि नहीं रह जाती। वस्तुत: समाचारपत्र एक घण्टे से भी कम समय तक पढ़े जाते हैं और उसके बाद कूड़ादान में फेंक दिये जाते हैं। अन्य समस्त लौकिक साहित्य का भी यही हाल है। परन्तु भगवद्गीता तथा श्रीमद्भागवत जैसे दिव्य ग्रन्थों का सौन्दर्य यह है कि वे कभी पुराने नहीं पड़ते। इस संसार में उन्हें सभ्य मनुष्य द्वारा विगत पाँच हजार वर्षों से पढ़ा जाता रहा है; फिर भी वे कभी पुराने नहीं पड़े।
विद्वानों तथा भक्तों के लिए वे चिरनवीन है और भगवद्गीता तथा श्रीमद्भागवत के श्लोकों के नित्य पाठ से विदुर जैसे भक्तों की भी तृप्ति नहीं होती। विदुर ने मैत्रेय से भेंट करने के पूर्व भगवान् की लीलाओं का न जाने कितनी बार श्रवण किया होगा, किन्तु वे फिर भी उन्हीं कथाओं की पुनरावृत्ति चाह रहे थे, क्योंकि उन्हें सुनने से वे तृप्त नहीं हो पाये थे। भगवान् की महिमामंडित लीलाओं की दिव्य प्रकृति ऐसी ही होती है।