हिंदी में पढ़े और सुनें
भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 5: मैत्रेय से विदुर की वार्ता  »  श्लोक 9
 
 
श्लोक  3.5.9 
येन प्रजानामुत आत्मकर्म-
रूपाभिधानां य भिदां व्यधत्त ।
नारायणो विश्वसृगात्मयोनि-
रेतच्च नो वर्णय विप्रवर्य ॥ ९ ॥
 
शब्दार्थ
येन—जिससे; प्रजानाम्—उत्पन्न लोगों के; उत—जैसा भी; आत्म-कर्म—नियत व्यस्तता; रूप—स्वरूप तथा गुण; अभिधानाम्—प्रयास; —भी; भिदाम्—अन्तर; व्यधत्त—बिखरे हुए; नारायण:—नारायण; विश्वसृक्—ब्रह्माण्ड के स्रष्टा; आत्म-योनि:—आत्मनिर्भर; एतत्—ये सभी; —भी; न:—हमसे; वर्णय—वर्णन कीजिये; विप्र-वर्य—हे ब्राह्मणश्रेष्ठ ।.
 
अनुवाद
 
 हे ब्राह्मणश्रेष्ठ, आप यह भी बतलाएँ कि ब्रह्माण्ड के स्रष्टा तथा आत्मनिर्भर प्रभु नारायण ने किस तरह विभिन्न जीवों के स्वभावों, कार्यों, रूपों, लक्षणों तथा नामों की पृथक्-पृथक् रचना की है।
 
तात्पर्य
 प्रत्येक जीव प्रकृति के गुणों के अनुसार अपनी सहज प्रवृत्तियों की योजना के अन्तर्गत है। उसके कार्य प्रकृति के तीन गुणों के अनुसार अभिव्यक्त होते हैं और उसका स्वरूप तथा शारीरिक लक्षण उसके कर्म के अनुसार गढ़े जाते हैं और उसका नाम उसके शारीरिक स्वरूप के अनुसार प्रदान किया जाता है। उदाहरणार्थ, उच्च जाति के लोग श्वेत (शुक्ल) होते हैं और निम्न जाति के लोग काले होते हैं। यह गोरे-काले का विभाजन मनुष्य के जीवन के श्याम तथा शुक्ल कार्यों के अनुसार होता है। पवित्र कार्यों से मनुष्य का जन्म अच्छे तथा उच्च परिवार में होता है, वह धनी बनता है, विद्वान बनता है और सुन्दर शारीरिक स्वरूप प्राप्त करता है। अपवित्र कार्यों से मनुष्य वंश की स्थिति के फलस्वरूप निर्धन बनता है, सदैव अभावग्रस्त रहता है, मूर्ख या अशिक्षित रहता है और कुरूप शरीर पाता है। विदुर ने मैत्रेय से अनुरोध किया कि वे भगवान् नारायण द्वारा निर्मित समस्त जीवों के इन अन्तरों का वर्णन् करें।
 
शेयर करें
       
 
  All glories to Srila Prabhupada. All glories to  वैष्णव भक्त-वृंद
  Disclaimer: copyrights reserved to BBT India and BBT Intl.

 
>  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥