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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 6: विश्व रूप की सृष्टि  »  श्लोक 11
 
 
श्लोक  3.6.11 
अथ तस्याभितप्तस्य कतिधायतनानि ह ।
निरभिद्यन्त देवानां तानि मे गदत: श‍ृणु ॥ ११ ॥
 
शब्दार्थ
अथ—इसलिए; तस्य—उसका; अभितप्तस्य—उसके चिन्तन के अनुसार; कतिधा—कितने; आयतनानि—विग्रह; —थे; निरभिद्यन्त—विभिन्नांशों द्वारा; देवानाम्—देवताओं का; तानि—उन समस्त; मे गदत:—मेरे द्वारा वर्णित; शृणु—सुनो ।.
 
अनुवाद
 
 मैत्रेय ने कहा : अब तुम मुझसे यह सुनो कि परमेश्वर ने अपना विराट रूप प्रकट करने के बाद किस तरह से अपने को देवताओं के विविध रूपों में विलग किया।
 
तात्पर्य
 देवता भी अन्य सारे जीवों की तरह परमेश्वर के वियुक्त हुए भिन्नांश हैं। देवताओं तथा सामान्य जीवों में केवल इतना ही अन्तर है कि सारे जीव जब भगवान् की भक्ति के पुण्य कर्मों से युक्त होते हैं और भौतिक प्रकृति पर प्रभुत्व जताने की उनकी इच्छा शमित हो जाती है, तो वे देवताओं के पद पर उन्नत कर दिये जाते हैं, जिन्हें भगवान् विश्व के कार्य-व्यापार की व्यवस्था करने का कार्य भार सौंपे हुए हैं।
 
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