श्रीमद् भागवतम
 
हिंदी में पढ़े और सुनें
भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 6: विश्व रूप की सृष्टि  »  श्लोक 21
 
 
श्लोक  3.6.21 
हस्तावस्य विनिर्भिन्नाविन्द्र: स्वर्पतिराविशत् ।
वार्तयांशेन पुरुषो यया वृत्तिं प्रपद्यते ॥ २१ ॥
 
शब्दार्थ
हस्तौ—दो हाथ; अस्य—विराट रूप के; विनिर्भिन्नौ—पृथक् होकर; इन्द्र:—स्वर्ग का राजा; स्व:-पति:—स्वर्ग लोकों का शासक; आविशत्—प्रविष्ट हुआ; वार्तया अंशेन—अंशत: व्यवसायिक सिद्धान्तों के साथ; पुरुष:—जीव; यया—जिससे; वृत्तिम्—जीविका का व्यापार; प्रपद्यते—चलाता है ।.
 
अनुवाद
 
 तत्पश्चात् जब विराट रूप के हाथ पृथक् हुए तो स्वर्गलोक का शासक इन्द्र उनमें प्रविष्ट हुआ और इस तरह से जीव अपनी जीविका हेतु व्यापार चलाने में समर्थ हैं।
 
 
शेयर करें
       
 
  All glories to Srila Prabhupada. All glories to वैष्णव भक्त-वृंद
  Disclaimer: copyrights reserved to BBT India and BBT Intl.

 
About Us | Terms & Conditions
Privacy Policy | Refund Policy
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥